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ऊँची तीन कटनी वाली सुन्दर वेदिका (गन्धकुटी) वनी थी। गन्धकुटी पर रत्न-जटित सुवर्ण सिहासन था जिसमें कमल का फल वना हुआ था। गन्धकुटी के चारों ओर १२ विशाल कक्ष (कमरे) थे, जिनमें देव, देवी, मनुष्य, स्त्री, साध, साध्वी, पशु, पक्षी आदि उपदेश सुनने वाले भद्र प्राणियों के बैठने की व्यवस्था थी। इसके सिवाय आगन्तुक जनता की मुविधा के लिए अन्य मनोहर स्थान और साधन उस समवशरण में बनाये गये थे। मध्यवर्तिनी उच्च गन्धकुटी के सिंहासन पर तीर्थंकर महावीर के विराजमान होने की व्यवस्था थी, जिससे उनका उपदेश समस्त श्रोताओं (मुननेवालों) को अच्छी तरह सुनाई पड़े।
उसी समय देवों का दुन्दुभी वाजा वहाँ वजने लगा, जिसकी मधुर-आकर्षक ध्वनि वहुत दूर पहुँचती थी। उस ध्वनि को मुनकर तीर्थकर महावीर के समवशरण की वार्ता कानों-कान दूर तक फैल गयी। जिसमे तीर्थंकर महादीर का दिव्य उपदेश सुनने की उत्कण्टा से दूर-दूर की जनता चलकर ऋजुकला नदी के तट पर वने समवशरण में पहुंची।
इन्द्र भी विशाल देव-परिवार के साथ समवशरण में पहँचा। उसने वहां तीर्थंकर के कैवल्य पद का महान् उत्सव किया, तीर्थंकर का दर्शन, वन्दना, पूजन बड़े भक्तिभाव और हर्ष के साथ किया। तदनन्तर समवशरण की मुव्यवस्था की।
समवशरण में महान् प्रकाश था जिसमें वहां रात और दिन का भंद नहीं जान पड़ता था, वहाँ परम शान्ति थी। वहाँ आये हुए प्रत्येक प्राणी के हृदय में द्वेष, बैर, क्रोध, हिसा की भावना जाग्रत नहीं होती थो; अतः सिंह, गाय, चीता, हरिण, बिल्ली, चहा, सर्प, न्यौला * 'ऋषिकल्पजनितार्या ज्योतिर्वनभवनयुवतिभावनजाः । ज्योतिष्वकल्पदेवा ननिर्यची वमन्ति तेष्वनपूर्वम् ।।' -'समवशरण एक र्षिणिप्ट धर्मसभा है। 'ममवशरण' शब्द का अर्थ है समताभावी तीर्थकर भगवान् के चरण के शरण में जाना। तीर्थकरों के समवशरण में क्रम से श्रमण-ऋषिगण, स्वर्गवासी देवी, श्रमणा, ज्योतिषियों की देवी, व्यन्तर देवियां, स्वर्गवासी देव, मनप्य और तिर्यञ्च बेटते हैं।