Book Title: Tirthankar Varddhaman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 85
________________ सप्तभंगी 'जो तच्च मयन्तं णियमा सहहिद सत्तभंगहि । लोयाण पण्ह बसबो ववहार पवत्तणटुं च ॥' -कातिकेयानप्रेक्षा ॥३११॥ ( जो लोक प्रश्न-वश तथा व्यवहार-सम्पादनार्थ अनेकान्त का श्रद्धान सप्तभंगी द्वारा नियम से करता है वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है। ) समस्त चेतन-अचेतन पदार्थ स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव की अपेक्षा से सत्स्वरूप हैं और पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव की अपेक्षया असत् स्वरूप हैं। यदि ऐसा अपेक्षया स्वीकार न किया जाए तो किसी इष्ट तत्त्व की व्यवस्था नहीं बन सकती-- 'स्यादस्ति स्वचतुष्टयाविरतः स्थानास्त्यपेक्षाकमात्, तत्स्यादस्ति च नास्ति चेति युगपत् सा स्थापवक्तब्धता । तत् स्यात् पृथगस्ति नास्ति युगपत् स्यादस्तिनास्त्याहिते, वक्तव्ये गुणमुल्य भावनिक्तः स्यात् सप्तभंगी विषिः॥ -श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्रम् ॥१०॥ (स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्तिनास्ति, स्यादवक्तव्य, म्यादस्त्यवक्तव्य, स्यान्नास्त्यवक्तव्य, स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्य-ये सात भंग हैं। वक्तव्य में गौण और मुख्य भाव नियत करने वाली यह 'सप्तभंग' विधि है ।) ___ भंग शब्द के भाग, लहर, प्रकार, विघ्न आदि अनेक अर्थ होते हैं, उनमें से यह 'भंग' शब्द प्रकारवाची लिया है; तदनुसार वचन के भंग सात प्रकार के हो सकते हैं, उससे अधिक नहीं क्योंकि आटवों तरह का कोई वचन-भंग नहीं होता और सात से कम मानने से कोई-न-कोई वचन-भंग छट जाता है। * 'सप्तधैव तत्सन्देह समुत्पादात् । -म्यावादसियिः ॥ (किसी भी पदार्थ के विषय में मन्देह की उत्पत्ति मात प्रकार मे ही हो सकती है।)

Loading...

Page Navigation
1 ... 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100