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स्याद्वाद
'स्थावावो विद्यते यत्र, पक्षपातो न विद्यते । अहिंसायाः प्रधानत्वं, जैनधर्मः स उच्यते ॥
जानने और कहने में बहुत भारी अन्तर है, क्योंकि जितना जाना जा सकता है उतना कहा नहीं जा सकता । इसका कारण यह है कि जितने ज्ञान के अंश हैं, उन ज्ञान-अंशों के वाचक न तो उतने शब्द ही है
और न ही उन सब ज्ञान-अंशों को कह डालने की शक्ति जीभ (रसना) में है।
सामान्य दृष्टान्त है कि हम अंगूर, आम, अनार खाकर उनकी मिठास के अन्तर (मिष्ठता) को यथार्थतः पृथक्-पृथक् नहीं कह सकते। किसी भी इष्ट या अनिष्ट पदार्थ के छुने, सूंघने, देखने, सुनने में जो
आनन्द या दुःख होता है, कोई भी मनुष्य उसे इन्द्रिय-जन्य ज्ञान को ठीक उसी रूप में मुख द्वारा कह नहीं सकता । परीक्षा में उत्तीर्ण (पास) होने वाले विद्यार्थी को अपना परीक्षाफल जानकर जो हर्ष हुआ, उस हर्ष को हजार यत्न करने पर भी वह ज्यों-का-त्यों कह नहीं सकता। गठियावात के रोगी को गठियावात की जो पीड़ा होती है, उसे वह शब्दों में नहीं बतला सकता।
इस तरह एक तो जानने और कहने में यह एक बड़ा भारी अन्तर है। दूसरे जितना विषय एक समय में जाना जाता है यदि उसे मोटे रूप से भी कहना चाहें तो उसके कहने में जानने की अपेक्षा समय वहुत अधिक लगता है। किसी सुन्दर उद्यान का एक दृश्य देखकर जो उस बगीचे के विषय में एक ही मिनट में ज्ञान हुआ, उस सब को कहने में अनेक मिनट ही नहीं अपितु अनेक घंटे लग जाएंगे; क्योंकि जिन सब बातों को नेत्रों ने एक मिनट में जान लिया है, उनको जीभ (युगपद्)