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'सिद्धिरनेकान्तात्' - ( शब्दार्णव चन्त्रिका, सोमदेव सूरि- १ ) "सिद्धिः शब्दानां निष्पतिशंप्तिर्वा भवत्यनेकान्तात् । अस्तित्वन:स्तित्वनित्यत्वानित्यत्व विशेषण विशेषाद्यात्मकत्वात् दृष्टेष्ट प्रमाणाविरुद्धाचाशास्त्र, परिसमाप्तेरित्येवोऽधिकारो बेषितव्यः । वक्यति - सात्येतादिरितिअनेकान्ताधिकारे सत्येवाद्यन्त व्यपदेशो घटते अन्धया तदभावात् किं केन सह गृह्येत् यतः सज्ञा स्थात् ।"
( अनेकान्त से सिद्धि होती है; अर्थात् शब्दोंकी निष्पत्ति अथवा ज्ञप्ति अनेकान्त से होती है। अस्तित्व- नास्तित्व, नित्यत्व- अनित्यत्व, विशेषण और विशेष्य आदि अनेकान्तात्मक हैं अतः इष्ट प्रमाण से अविरुद्ध दृष्टिगोचर होने से इस अनेकान्त का अधिकार इस ( व्याकरण शास्त्र) की परिसमाप्ति पर्यन्त जानना चाहिये। जैसा कि आगे कहा जाएगा । 'सात्येतादि' ( सूत्र ) जिसका अर्थ है ' इत्संज्ञक के साथ उच्चार्यमाण आदि वर्ण अपने सहित उन मध्यपतित वर्णाक्षरों का ग्राहक होता है' अर्थात् 'अण्' यह प्रत्याहार है। इसमें 'अ इ उ ण्' सूत्रान्तःस्थ वर्णों का ग्रहण है । प्रथमाक्षर अ और अन्त्य ण् के मध्यवर्ती 'इ- उ' का ग्रहण भी होता है । यह अनेकान्त अधिकार होने पर ही घटित हो सकता है अन्यथा उसके अभाव में किससे किसका ग्रहण किया जाए की संज्ञा का निर्माण हो । )
'सर्वान्तवत्तद्गुण मुख्यकल्पं,
सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं,
सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥६२॥
-- आचार्य समन्तभद्र युक्त्यानुशासन
( हे तीर्थंकर महावीर, आपका ही यह धर्मतीर्थ सर्वोदय सर्व अभ्युदयकारी है अन्य का नहीं; क्योंकि गौण-मुख्य आदि सर्व-धर्मान्मक हैं और जो परस्पर निरपेक्ष है वह सर्वधर्म - शून्य है, हे भगवन ! आपका यह तीर्थ समस्त आपत्तियों का अन्त करने वाला और स्वयं भी अन्त रहित है ।'