Book Title: Tirthankar Varddhaman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 96
________________ शंकराचार्य और स्याद्वाद 'आचार्य शंकर ने जैनों के स्याद्वाद को 'संशयवाद' तथा 'अनिश्चितवाद' की संज्ञा दी है। उसका कारण यह है कि उन्होंने 'स्यादस्ति' का आशय 'शायद' के रूप में ग्रहण किया है; किन्तु आचार्य शंकर के इस मन्तव्य को जैन दार्शनिक स्वीकार नहीं करते। वे वस्तु को अनेक धर्म (गुण) वाली कहते हैं और स्यादस्ति' के साथ 'एव' शब्द का प्रयोग करते हैं। इसलिए स्याद्वादी सिद्धान्त का समर्थक विद्वान् किसी भी वस्तु के सम्बन्ध में निर्णय देते हुए यही कहेगा कि अमुक अपेक्षा से ही ऐसा होता है। शंकराचार्य ने जो यह शंका व्यक्त की है कि एक ही पदार्थ में नित्य और अनित्य धर्म नहीं रह सकते; उसका उत्तर ऊपर के उदाहरण में दिया जा चुका है, अर्थात् जैसे एक ही व्यक्ति अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है और अपने पिता की अपेक्षा पुत्र भी है, इसी प्रकार एक ही पदार्थ में दो विरोधी धर्म अपेक्षा भेद से रहते हैं। उदाहरण के लिए केन्द्र में बैठा हुआ व्यक्ति, उसके चारों ओर खड़े हुए व्यक्तियों की अपेक्षा भेद मे भिन्न-भिन्न दिशाओं में बैठा हुआ सिद्ध होता है। उसी प्रकार पदार्थ के नित्यानित्य धर्मों में कोई विरोध नहीं आने पाता, छोटी और बड़ी वस्तुओं का छोटापन और वड़ापन अपेक्षा भेद इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेकान्त का अनुसंधान भारत की अहिसा साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितनी ही शीघ्र अपनायेगा, विश्व में शान्ति भी उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी।' १. भारतीय दर्शन, वाचस्पति गैरोला, पृष्ठ ११६, २. संस्कृति के चार प्रध्याय, रामधारीसिंह 'दिनकर', पृष्ठ १३७

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