Book Title: Tirthankar Varddhaman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर वर्द्धमान विद्यानन्द मुनि श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन-समिति, इन्दौर ... वी. नि. संवत् २५०० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक बाबूलाल पाटोदी मंत्री, श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति ४८, मीतलामाता बाजार, इन्दौर - २ ( मध्यप्रदेश) O वी. नि. ग्रं. प्र. समिति पष्ठ पुष्प अष्टम आवृत्ति (संशोधित परिवद्धित ) तीर्थकर वर्द्धमान विद्यानन्द मुनि २५००वाँ वीर- निर्वाणोत्सव के निमित्त अक्टूबर, १९७३ मूल्य : तीन रुपये मुद्रक : नई दुनिया प्रेस, इन्दौर TIRTHANKAK WARDHAMAN Vidyanand Muni Cultural History 1973 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय परम पूज्य मुनिश्री विद्यानन्दजी ने अपने मेरठ-वर्षायोग में जो अध्ययनअनुसंधान किया और जो अभीक्ष्ण स्वाध्याय-सिद्धि की, उसी की एक अपूर्व परिणति है उनकी आज से बीसेक वर्ष पूर्व प्रकाशित कृति “वीर प्रभु" का यह आठवां उपस्कृत संस्करण । इसमें मुनिश्री ने भगवान् महावीर के जीवन पर खोजपूर्ण सामग्री तो दी ही है, साथ ही उन तथ्यों का भी संतुलित समायोजन किया है जो अब तक हुई गंभीर खोजों के फलागम हैं। यही कारण है कि इसमें प्रागैतिहामिक, ऐतिहासिक, ज्योतिषिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक दृष्टियों से महत्वपूर्ण प्रामाणिक विवरण भी सम्मिलित हुए हैं । वास्तव में मुनिश्री अविराम दाड़ती सदासद्य: उस नदी की भांति हैं जो हर घाट-बाट पर निर्मल है और जो किचित् भी कृपण नहीं है। वे ठहरे हुए जल तो हैं नहीं कि एक बार जितना बटोर लिया उसे ही इतिश्री मानकर चलें; वे अनेकान्त की मंगल मूर्ति हैं और इमीलिए प्रत्येक दृष्टिकोण का सम्मान करते हैं और उसमें से प्रयोजनोपयोगी निर्दोष तथ्यों को अंगीकार कर लेते हैं। यही कारण है कि प्रस्तुत कृति में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में लभ्य चक्रवृद्धिक आनन्द की छटा मिलेगी। अनेकान्तात्मक सत्यान्वेषण की सबसे प्रमुख विशेषता यही है कि उसमें वस्तु का मूल व्यक्तित्व तो अक्षत बना ही रहता है माथ ही चित्त पर एक वर्धमान ताजगी और मुरभि वरसती रहती है। मुनिश्री प्रवचन-शैली में लिखते हैं, इसीलिए उनके प्रतिपादन सरल, मुगम, उदाहरणों में पुष्ट और सुग्राह्य हैं । पुस्तक की एक और विशेषता यह है कि इसमें भगवान महावीर के जीवन का असंदिग्ध वृत्तान्त तो है ही, साथ ही जैन मिद्धान्तों का एक मारपूर्ण व्यक्तित्व भी झलक उठा है। - वैशाली के सम्बन्ध में मुनिश्री ने जो विवरण दिये हैं, वे किसी भी गणतन्त्र के लिए गौरव का विपय हो सकत हैं। जब विश्व के अन्य देश गजनीति के शैशव से गजर रहे थे, तब वैशाली अपने तारुण्य-शीर्ष पर थी। जैनों ने न केवल धर्म, नंस्कृति और दर्शन के क्षेत्र में सर्वोच्चता उपलब्ध को थी वरन् उन्होंने पार्थिव समृद्धियों के भो उस तल को लिया था जहाँ पहुंचकर आदमी लोटने लगता है । इसका मलतव यह हुआ कि जैन राजन्यवर्ग ने पार्थिवता की उस मीमा को भी लांचना शुरू किया था जहां पहुंचकर वह स्वयं निस्मार और निरर्थक दीखने लगती है। महावीर का वैराग्य कोई लाचारी नहीं है और न ही वह पलायन है, वह मुनियांजिन पद-निक्षेप है अध्यात्म की दिशा में । वह अनन्त ऐश्वर्य के बीच में आनेवाली मंगल ध्वनि है, जिसने आगे चलकर भारत के भाल का शृंगार किया है। महावीरकालीन भारत निपट अशान्त था और शान्ति की तलाश कर रहा था। इसके विपरीत भारतीय धरती पर कई जगह पशुओं की निरीह चीत्कारें और रक्तपात थे । इन निराशाओं Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के मध्य महावीर शान्ति के एक सशक्त विश्वास की भांति आये, जिन्होंने आम आदमी को निष्कण्टक सांस लेने का अवसर दिया। उन्होंने सहअस्तित्व और धार्मिक महिष्णुता के ऐसे आधार, जो कई सदियों पूर्व भारत में प्रौढ़ विकास कर चुके थे, किन्तु अब जिन्हें विस्मृत कर दिया गया था, पुनः स्थापित किये और उनकी सर्वमंगला प्रवृत्ति की और लोगों का ध्यान आकर्पित किया। एक महत्व की बात यह भी हई कि भगवान् महावीर ने अपना कार्य लोकभापा में किया, जहां किसी तरह का कोई व्यवधान नहीं था। मनिश्री की यह कृति पीस मांवें महावीर-परिनिर्वाण की एक समुज्ज्वल भमिका के रूप में प्रकाश में आ रही है । यह एक ऐसी पुस्तक है, जो कई-कई छोटी पुस्तकों का आधार बन सकती है, विशेपतः उन पुस्तकों का जो पाठ्यक्रमों में आती हैं और कई भ्रम और गलतफहमियों को जन्म देती है। श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, इन्दोर का यह परम सौभाग्य है कि उसे मुनिश्री की प्रस्तुत उल्लेख्य कृति के प्रकाशन का मुखद संयोग मिला है। जिस पाग्म-पुरुप में संपूर्ण भारतीय संत-परम्परा वातायन ढूंढ़ रही है, हमें विश्वास है उसकी यह बहुमूल्य कृति व्यापक रूप में समादृत होगी और लोक-जीवन को समुचित दिशा देने में मफलता प्राप्त करेगी। ममिति ने मुनिश्री की अन्य कई कृतियां प्रकाशित की हैं, जिनमें से "निर्मल आत्मा ही समयसार", "अहिंसाःविश्वधर्म", "आध्यात्मिक सूक्तियां", "समय का मल्य" बहख्यात और बहुपटित-चचित कृतियां हैं। यही कारण है कि इनमें से कई के द्वितीय संस्करण भी हुए हैं। इसके अतिरिक्त मुनिवर की मंगल प्रेरणा के फलस्वरूप समिति भगवान् महावीर के जीवन पर दो और महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन कर रही है; ये हैं-मुनिश्री के प्रवुद्ध एवं व्यक्तिगत निर्देशन में पंडित पद्मचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित “तीर्थकर वर्द्धमान महावीर" तथा हिन्दी के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार, कवि एवं पत्रकार श्री वीरेन्द्रकुमार जैन द्वारा प्रणीत बृहद् उपन्यास "अनत्तर योगी : तीर्थकर महावीर" । हमें विश्वास है समिति आने वाले वर्ष में मुनिश्री के मंगल शुभाशीष लेकर जीवन को प्रकाश और पावनता देने वाला सत्साहित्य प्रकाशित करने में सफल होगी। ___ अन्त में हम पंडित श्री नाथलालजो शास्त्री के प्रति भी समिति का आभार व्यक्त करते हैं, जिन्होंने अत्यधिक व्यस्त होते हुए भी एक खोजपूर्ण प्राक्कथन लिखकर हमें अनुगृहीत किया है। बाबूलाल पाटोदी दीपावली, १९७३ मन्त्री Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन मुनि श्री विद्यानन्दजी द्वारा लिखित 'वीर-प्रभु' लघु पुस्तिका छह-सात संस्करणों में लगभग २० हजार संख्या में प्रकाशित होकर पाठकों के सम्मुख आ चुकी है। भगवान महावीर के पच्चीस सौवें परिनिर्वाण-महोत्सव की योजनाओं के अन्तर्गत तीर्थकर वर्द्धमान के जीवन और देशना को प्रस्तुत संस्करण के रूप में परिवर्तित और परिवर्धित कर विद्वान एवं तपस्वी लेखक ने उसे बहुमूल्य कृति बना देने का सराहनीय प्रयत्न किया है। श्री वीर निर्वाण ग्रंथ प्रकाशन-समिति द्वारा पं. पत्रचन्द्रजी शास्त्री की भगवान महावीर की एक अन्य जीवनी भी प्रकाशित हो रही है, उसमें मुनिश्री के अनेक सुझाव है, जिनका यत्र-तत्र साम्य दिखाई देता है। इस रचना में मुनिश्री ने जीवन्त स्वामी प्रतिमा का, जो राजकुमार महावीर के मंसार त्यागने के एक वर्ष पूर्व का चित्रण है, चित्र तथा तीर्थकर वर्द्धमान की पंचकल्याणक तिथियों का वर्तमान ईस्वी सन्, तारीख तथा वारों में उल्लेख, जन्मस्थान, वैशाली की महिमा इत्यादि विशेषताओं का दिग्दर्शन करा कर इसका महत्व वढ़ा दिया है। भगवान महावीर के लोक मंगलकारी मिद्धांतों में अहिंमा, अनेकांत, म्याद्वाद अपरिगृह, ममतावाद और कर्मवाद आदि हैं, जिनका मूर्तिमान स्वरूप स्वयं लेखक अपने अलौकिक तपःपूत जीवन में ग्रहण किये हुए है और वर्तमान विषमता के विषाक्त वातावरण में मंप्रदायातीत मर्वधर्म-ममभाव और ममन्वय की पुण्यपीयूषधाग़ को जन-जीवन में प्रवाहित कर श्रमण-संस्कृति की महत्ता और विश्वधर्म का प्रचार-प्रमार कर रहे हैं। मानव-जीवन में भौतिकता के माथ आध्यात्मिकता का समन्वय होना आवश्यक है। आध्यात्मिकता जीवन को बाहय रूपरेखा के निर्माण के साथ जीवन को पशु-स्तर से उठा कर मानवीय धरातल पर ले जाती है। भारतीय संस्कृति में भौतिकता के भीतर ही आध्यात्मिकता की स्थिति मानी गई है। भारतीय संस्कृति का मूल सिद्धांत व्यापक सहिष्णुता है। दूसरों की जीवनसंबंधी समस्याओं मोर दृष्टिकोण के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने की उदारता से इस देश में वैदिक दौर थमण साथ-साथ रह रहे हैं। सार्वभौमिक दृष्टि-विन्दु की विशिष्टता से ही विचारधाराओं में विरोष की जगह मंश्लेषण को प्रोत्साहित करने का प्रयत्ल रहा है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'रुचीनां वैचित्र्यादृजु कुटिल नाना पथजुषा । नृणाम को गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव' । महिम्नस्त्रोत को सर्वधर्म समानत्व को करने में समर्थ यह उदारता वैदिक शास्त्रों में उपदिष्ट है । यं शंवा समुपासते' और 'यो विश्वं वेदवेद्यं आदि वैदिक और मट्टाकलंक के उदार भावों से अनुप्राणित मंगल श्लोक प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार मनुस्मृति में लिखा है कि ६८ तीर्थों की यात्रा का जो फल होना है वह एक आदिनाथ के स्मरण से प्राप्त हो जाता है। महामाग्न में जीवदया के संबंध में उल्लेख है कि एक ओर स्वर्णमे और ममस्त पृथ्वी और दूसरी ओर एक प्राणी का जीवन; फिर भी जीवन का मूल्य उससे अधिक है। ___ इतिहाम में यह देखने को मिलता है कि युग-महापुरुषों के शिष्यों ने अपने गुरुजनों के प्रदर्शिन मार्ग के प्रचार के नाम पर उन्मत्त होकर कलह और विद्वेष के वीज बोये, मजहब के नाम पर हिंसा और संघर्ष की जड़ जमाने की कोशिश की, पर क्षत्रिय शामक तीर्थंकरों आदि (जिनमें रामाकृष्ण आदि भी सम्मिलित हैं) ने मानव-हृदय को संस्कृत बनाना धर्म का उद्देश्य है यह उदघोषित करते हुए उसके नाम पर उत्पन्न किये गये दोपों को दूर कर स्वयं वीतरागता प्राप्त कर अहिंसा और अनेकांत रूप विश्व-कल्याणकारी मार्ग का उपदेश दिया। छान्दोग्य उपनिषद् ५-३ में गौतम गोत्रिय ऋपि क्षत्रिय राजा प्रवहण से आत्मविद्या के विषय में प्रश्न करते हैं और उन्हें उत्तर मिलता है कि "पूर्वकाल में तुम से पहले यह विद्या ब्राह्मणों के पास नहीं गयी इसीसे संपूर्ण लोकों में इस विद्या के द्वारा क्षत्रियों का ही अनुशासन होता रहा है।" इसी प्रकार छान्दोग्य उपनिषद् ५-११ में केकयकुमार अश्वपति राजा द्वाग पग्म थोत्रिय ऋपियों को आत्म विद्या के उपदेश देने का उल्लेख मिलता है। भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट अहिंसा इत्यादि सिद्धांतों के प्रसार करने का श्रेय इन्द्रभूनि गौतम, वायुभूति, अग्निभूति प्रभृति वंदवेदांग पारंगत ब्राह्मण-थुप्ठों को है, जो परम तपस्वी और ब्रह्मचारी थे और राजगृह से मुक्त हुए थे । महावीर-निर्वाण के पश्चात् भी आचार्य विद्यानंद आदि उद्भट विद्वान् स्याद्वाद-दर्शन के महान् प्रचार-प्रसार करने वाले हो चुके हैं। वर्तमान में वर्णी गणेशप्रसादजी भी ऐसे ही थे। १ जल के स्थान समुद्र ममान विभिन्न मार्ग और रुचिवालों के लिए मान्मा की मुक्ति-प्राप्ति का उद्देश्य तो एक ही है। २ प्रष्ट षष्टिषु तीर्थेषु यावायां यत्फलंभवेत्। श्री. मादिनाथदेवस्य स्मरणेनापितद्भवेत् ।। ३ एकतः कांचना मेरु: कृत्स्ना व वसुन्धरा । जीवस्य जीवितं चैव तत्तुल्यं कदास्यत ।। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनरल फरलांग, सुनोतिकुमार चटर्जी और न्यायमूर्ति रांगलेकर आदि विद्वानों के मतानुसार भारत में आर्यों के आने के पूर्व जनधर्म विद्यमान था। पश्चिमीय एवं उत्तरीय मध्य भारत का ऊपरी भाग ईस्वी सन् १५०० से लेकर ८०० वर्ष पूर्व पर्यन्त उन तूरानियों के अधीन था जिनको द्रविड़ कहते हैं। उस ममय उत्तरभारत में एक प्राचीन, अत्यन्त संगठित धर्म प्रचलित था, जिसका दर्शन, आचार एवं तपश्चर्या सुव्यवस्थित थी, वह जैनधर्म था। आर्यों ने यहां के निवासियों को अनार्य कहा और "दोनों यहां एक दूसरे के समीप रहने लगे। आर्यों के कुछ धार्मिक अनुष्ठान और देवी-देवताओं को अनार्य लोगों ने स्वीकार कर लिया । धीरे-धीरे अनार्यों के देवता, धर्मानुष्ठान, दर्शन, तत्वज्ञान और भक्तिवाद आर्यों के मन पर अपनी छाप छोड़ने लगे । अनार्य राजा नथा पुरोहित आर्यभाषा (संस्कृत) ग्रहण करने के माथ ही साथ आर्यभाषी समाज में गृहीत होने लगे।" सर राधाकृष्णन् के अनुसार उपनिषदों का तत्वज्ञान भारत के आदिवासी द्रविड़ों आदि से लिखा गया था। उपनिषद् और जैन तत्वज्ञान में आत्मा, व्यवहार (अविद्या) और निश्चय (विद्या) आदि के बारे में बहुत कुछ साम्य मिलता है । डॉ. हर्मन जैकोवी के मत से भगवान ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक ऐतिहासिक पुरुष थे । भागवत में उन्हें अष्टम अवतार के रूप में माना गया है । यह सब वैदिक और श्रमण संस्कृति दोनों को भारतीय संस्कृति के व्यापकरूप में आत्मसात कर लेने के उदाहरण हैं । वेदों में ऋषभ, अरिष्टनेमि, वर्षमान आदि तीर्थंकरों का उल्लेख गुणग्राहकना एवं उदारता का द्योतक है। भगवान महावीर वेद और ब्राह्मण-विरोधी थे, यह प्रचार भ्रमपूर्ण है। इसके कोई प्रमाण नहीं मिलते कि उन्होंने वेदों का विरोध किया, बल्कि मम्करी आदि दिगंवर माधुओं का पक्ष न कर इन्द्रभूनि आदि को अपना प्रमुख गणघर बनाया और गुणग्राही बने । वेदों आदि में भी हिमा का विधान अंग्रेज विद्वान् गबर्ट अर्नेस्ट ह्य म आदि द्वाग मंत्रों की हिमापरक व्याख्या करने के कारण हुआ जान पड़ता है। क्योंकि महाभारत के गांतिपर्व अ.६५,९ में लिखा है कि मद्य, मछली, मधु, मांम आदि वंदों में घूतों द्वारा कल्पित किये गये हैं। इसी प्रकार गजा रन्तिदेव के अहिंमक गजाओं में प्रसिद्ध होते हुए भी उमे प्रतिदिन दो हजार गायों और दो हजार पशुओं की हिंमा करने वाला बताया गया है। यह कथन महाभारत वन पर्व अ. २०७-२०८ का है जहां 'बध्येते' का अर्थ वास्तव में यह है कि गायों और पशुओं को बांधकर उनका १ संस्कृति प्रवाह (वैदिक काल के प्रार्य), पृ. ११८. २ एलफिस्टन मोर डा. कीथ की मान्यता है कि प्रायं बाहर से माये इसके पुष्ट प्रमाण नहीं है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूष अतिषि-मत्कार में दिया जाता था। चरक संहिता और निघंटु में ऋष का अर्थ एक पौधा है, जो औषष में काम आता है। इसी प्रकार उक्षा सोमलता को कहते हैं जबकि इनका बैल अर्थ कर मांस-भक्षण के अर्थ में उक्त मि. राबर्ट ने प्रयोग किया है। चमंगशि के भिगोने से जो जल बहता था उससे विशाल नदी प्रकट हुई वह चंबल कहलाई । साकृति पुत्र रंतिदेव ने अतिथियों के लिए २०१०० गायें छूकर दीं। उन्हें स्नान कराने में उनके चर्म का आलंभन (घोकर साफ करने से उक्त नदी निकली। यहां महाभारत गांति पर्व १०३ में जो संस्कृत श्लोक है उसके आलंभन गब्द का हिमा करना अर्थ कर दिया गया है इससे यह भ्रांति हो गयी; जबकि गोमेध का अर्थ गोसंवर्धन है या इन्द्रियसंयम है, किन्तु इनका हिमापरक अर्थ कर दिया गया है। इसीलिए मुनि श्री विद्यानंदजी अपने प्रवचनों में यह स्पष्ट बताते हैं कि भ. महावीर हिमा के विरोधी थे, न कि वेदों के। उन्होंने अहिंमा रूपी शास्त्र से मटके हुए प्राणियों का हृदय परिवर्तन किया। हमें भी भावात्मक एकता की बात करना चाहिए । भ्रामक वातों का प्रचार करने वाले साहित्य से वचना चाहिए। . . इम ग्रन्थ को लिखते हुए मुनिश्री ने अनेकांत और स्याद्वाद के स्वरूप पर इसीलिए रोचक उदाहरणों से विशद प्रकाश डाला है ताकि समन्वय की भावना और विश्वधर्म का लोकमानम पर अच्छा प्रभाव पड़े; क्योंकि म्याद्वाद महानुभूनिमय है। उसमें समन्वय की क्षमता है। वह उदारता के साथ अन्य वादों में आग्रह के अंग को छांट कर उन्हें अपना अंग बनाता है। यह बौद्धिक अहिंमा कही जाती है। आज जैनों में ही सांप्रदायिकता और परस्पर ईर्ष्या द्वेप बढ़ रहे हैं। निर्वाण-महोत्सव के द्वारा बाहर हम भ. महावीर की देशना का प्रचार करना चाहते हैं और घर में उस पर अमल नहीं कर पा रहे हैं। मुनिश्री ही ऐसे हैं जो अपने अद्भुत व्यक्तित्व, त्यागमय जीवन तथा वक्तृत्व से भावनात्मक ऐक्य का प्रयत्न कर रहे हैं। 'परस्परोपग्रहो जीवानां' और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' सदृश वाक्यों की व्याख्या श्रोताओं को तभी प्रकाशित कर सकती है जब इन मूत्रों के व्याख्याता स्वयं निर्विकार और और अमांप्रदायिक हों। आजकल की प्रबुद्ध * मांसौदनं मोमेण वापंभेण वा-पुत्र की माकांक्षा, पूर्णाय और वेदज्ञाता होने के लिए युवा व वृद्ध बैल का मांस खावे (बहदारण्य ६-४-१८). + 'दिनकर' के उद्गार है कि 'सहिष्णुता, उदारता, मामाजिक संस्कृति, अनेकांतवाद, स्यावाद पौर अहिंसा ये एक ही सत्य के अलग-अलग नाम हैं। असल में यह भारत वर्ष की सब से बड़ी विलक्षणता है जिसके अधीन यह देश एक हुमा है और जिसे अपनाकर सारा संसार एक Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनता से व्यक्ति छिपा नहीं रह सकता। मुनिश्री को 'पिच्छी-कमंडलु' और 'निर्मल आत्मा ही समयसार' आदि रचनाएँ समुज्ज्वल कृतियां हैं जो उनके चिनन, मनन, अभीक्ष्ण ज्ञानाराधन, असाधारण प्रतिमा एवं लोकहित की भावना की परिचायक हैं। मुनिश्री के इन्दौर वर्षावास के सुयोग से जो दिशा प्राप्त हुई उसका परिणाम वीर निर्वाण ग्रंथ प्रकाशन समिति है और समिति के प्रभावशाली प्रमुख कार्यकर्ता थी बाबूलालजी पाटोदी प्रभृति उदारमना सज्जनों के पुरुषार्थ से इसके विविध उद्देश्यों को कार्यन्वित किया जा रहा है । इन्दौर दीपावली वो. नि. सं. २५०० -नाथूलाल शास्त्री Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "महावीर ने एक ऐसी साधु संस्था का निर्माण किया, जिसकी भित्ति पूर्ण अहिंसा पर निर्धारित थी । उनका 'अहिंसा परमो धर्मः' का सिद्धान्त सारे संसार में २५०० वर्षों तक अग्नि की तरह व्याप्त हो गया । अन्त में इसने नव भारत के पिता महात्मा गांधी को अपनी ओर आकर्षित किया । यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि अहिसा के सिद्धान्त पर ही महात्मा गांधी ने नवीन भारत का निर्माण किया।" -टी. एन. रामचन्द्रन् मध्यभ-पुरातत्त्व विभाग, भारत Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम जीवन्त स्वामी प्रतिमा संसार से वैराग्य ४९ (चित्र) १३ तपस्या ५२ पहावीर-वन्दना १४ चन्दना-उद्धार ५४ भारतीय साहित्य में चौबोस उपसर्ग ५५ तीर्थकर १५ कैवल्य ५६ तीर्थकर वर्द्धमान १६ समवशरण ५९ महावीर-कालीन भारत दिव्य उपदेश ६१ (मानचित्र) २२ वोर-वाणी का प्रभाव ६५ जीवन-तथ्य २३-३० परिनिर्वाण-महोत्सव ६८ महावीर के नाम पर नगर ७० मोर मान में काल-गणना २५ जन्म स्थान २५ तीर्थकर महावीर और महात्माजन्म-कुण्डली २६ बद्ध ७०, ७३ पंचकल्याणक-तिथियां महावीर-निर्वाण-संवत् , ७४ विणद काल-निर्णय अनेकान्त ७९ . स्थल काल-निर्णय । सप्तभंगी ८५ वैशाली (चित्र) ३१ स्याद्वाद ८८ वैशाली नगर ३५ विद्वानों की सम्मतियाँ ९२ नन्द्यावर्त राजप्रामाद ३६ शंकराचार्य और स्याद्वाद ९६ तीर्थकर महावीर ३७ अनेकान्त और स्याद्वाद ९८ जन्मोत्सव ४१ स्याद्वाद की व्युत्पत्ति ९८ बर्द्धमान के नामान्तर ४४ चतुरंगवाद ९९ विवाह का उपक्रम ४६ उपसंहार १०० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वन्दना (पादाकुलक छन्द) "सन्मतिजिनपं सरसिजवदनं । संजनिताखिल कर्मकमथनं । पद्मसरोवरमध्यगतेन्द्रं । पावापुरि महावीर जिनेंद्रं ॥ वीरभवोदधिपारोत्तारं । मुक्तिश्रीवधुनगरविहारं ॥ विदिशकं तीर्थपवित्रं । जन्माभिषकृत निर्मलगात्रं ॥ वर्षमान नामाल्यविशालं। मान प्रमाण लक्षणवशतालम् ॥ शत्रुविमयनविकटभटवीरं । इष्टश्वर्यधुरीकृतदूरं ॥ कुंडलपुरि सिद्धार्य भूपाल । स्तत्पत्नी प्रियकारिणि बालं ॥ तत्कुलनलिन विकाशितहंसं । घातपुरोघातिकविध्वंसं ॥ ज्ञानदिवाकर लोकालोकं । निर्जितकारातिविशोकं ॥ बालत्वे संयममुपालितं । मोहमहानलमथनविनीतं ॥" -पं० आगाधर मूरि Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय साहित्य में चौबीस तीर्थकर 'प्रस्मिन्वं भारते वर्षे जन्म वं भावके कुले । तपसा युक्तमात्मानं केशोत्पाटन पूर्वकम् || तीर्थकराश्चतुविशतमातंस्तु पुरस्कृतम् । छायाकृतं फणीन्द्रेण ध्यानमात्र प्रवेशिकम् ।' - वैदिक पद्मपुराण ५ । १४ । ३८९-९० ( इस भारतवर्ष में २४ (चौबीस ) तीर्थकर श्रावक (क्षत्रिय) कुल में उत्पन्न हुए । उन्होंने केशलुंचनपूर्वक तपस्या में अपने आपको युक्त किया। उन्होंने इस निर्ग्रन्थ दिगम्बर पद को पुरस्कृत किया । जव जव वे ध्यान में लीन होते थे फणीन्द्र नागराज उनके ऊपर छाया करते थे ।) चौबीस तीर्थकरों के नाम इस प्रकार हैं- 'ऋपभनाथ, अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दन नाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ नाथ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभनाथ, पुष्पदन्तनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्यनाथ, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वीरनाथ ।' डा. बुद्धप्रकाश डी. लिट्. ने अपने ग्रन्थ 'भारतीय धर्म एवं संस्कृति' में लिखा है- " महाभारत में विष्णु के सहस्रनामों में श्रेयांस, अनत, धर्म, शान्ति और संभव नाम आते हैं और शिव के नामों में ऋषभ, अजित, अनन्त और धर्म मिलते हैं । विष्णु और शिव दोनों का एक नाम सुव्रत दिया गया है। ये सब नाम तीर्थंकरों के हैं। लगता है कि महाभारत के समन्वयपूर्ण वातावरण में तीर्थकरों को विष्णु और शिव के रूप में सिद्ध कर धार्मिक एकता स्थापित करने का प्रयत्न किया गया । इससे तीर्थंकरों की परम्परा प्राचीन सिद्ध होती है ।" Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वन्दना (पादाकुलक छन्द) "सन्मतिजिनपं सरसिजवदनं । संजनिताखिल कर्मकमयनं ॥ पद्मसरोवरमध्यगतेन्द्रं । पावापुरि महावीर जिनेद्रं ॥ बोरभवोदषिपारोतारं । मुक्तिश्रीवधुनगरविहारं ॥ विदिशकं तीर्थपवित्रं । जन्माभिषकृत निर्मलगात्रं ॥ वर्षमान नामाल्यविशालं। मान प्रमाण लक्षणदशतालम् ॥ शत्रुविमयनविकटभटवोरं । इष्टश्वर्यधुरीकृतदूरं ॥ कुंडलपुरि सिद्धार्थ भूपाल । स्तत्पत्नी प्रियकारिणि बालं ॥ तत्कुलनलिन विकाशितहंसं। घातपुरोघातिकविध्वंसं ॥ मानदिवाकर लोकालोकं । निर्जितकर्मारातिविशोकं ॥ बालत्वे संयमसुपालितं । मोहमहानलमथनविनीतं ॥" -पं० आशाधर सूरि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय साहित्य में चौबीस तीर्थकर 'मस्मिन्ये भारते वर्षे जन्म के भावके कुले । तपसा. युक्तमात्मानं केशोत्पाटन पूर्वकम् ॥ तीपंकराश्चतुर्विशतपातस्तु पुरस्कृतम् । छायागुतं फणीन्द्रेण ध्यानमान प्रदेशिकम् ॥' -वैदिक पद्मपुराण ५।१४ । ३८९-९० (इस भारतवर्ष में २४ (चौबीस) तीर्थंकर श्रावक (क्षत्रिय) कुल में उत्पन्न हुए। उन्होंने केशलुंचनपूर्वक तपस्या में अपने आपको युक्त किया। उन्होंने इस निग्रन्थ दिगम्वर पद को पुरस्कृत किया। जव-जव वे ध्यान में लीन होते थे फणीन्द्र नागराज उनके ऊपर छाया करते थे। चौबीस तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार हैं 'ऋपभनाथ,अजितनाथ,सम्भवनाथ, अभिनन्दन नाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ नाथ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभनाथ, पुष्पदन्तनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्यनाथ, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वीरनाथ ।' । डा. बुद्धप्रकाश डी. लिट. ने अपने ग्रन्थ 'भारतीय धर्म एवं संस्कृति' में लिखा है-- "महाभारत में विष्णु के सहस्रनामों में श्रेयांस, अनत, धर्म, शान्ति और संभव नाम आते हैं और शिव के नामों में ऋपभ, अजित, अनन्त और धर्म मिलते हैं। विष्णु और शिव दोनों का एक नाम सुव्रत दिया गया है। ये सब नाम तीर्थंकरों के हैं। लगता है कि महाभारत के समन्वयपूर्ण वातावरण में तीर्थंकरों को विष्णु और शिव के रूप में सिद्ध कर धार्मिक एकता स्थापित करने का प्रयत्न किया गया। इससे तीर्थंकरों की परम्परा प्राचीन सिद्ध होती है।" Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर वर्द्धमान 1 "यह सुविदित है कि जैन धर्म की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है । भगवान् महावीर तो अन्तिम तीर्थंकर थे । मिथिला प्रदेश के लिच्छवी गणतन्त्र से, जिसकी ऐतिहासिकता निर्विवाद है, महावीर का कौटुम्विक सम्पर्क था । उन्होंने श्रमण परम्परा को अपनी तपश्चर्या के द्वारा एक नयी शक्ति प्रदान की जिसकी पूर्णतम परम्परा का सम्मान दिगम्वर-परम्परा में पाया जाता है । भगवान् महावीर से पूर्व २३ तीर्थकर और हो चुके थे । उनके नाम और जन्म-वृतान्त जैन साहित्य में सुरक्षित हैं। उन्हींमें भगवान् ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे जिसके कारण उन्हें आदिनाथ कहा जाता है । जैनकला में उनका अंकन घोर तपश्चर्या की मुद्रा में मिलता है । ऋषभनाथ के चरित का उल्लेख श्रीमद्भागवत् में भी विस्तार से आता है और यह सोचने पर वाध्य होना पड़ता है कि इसका कारण क्या रहा होगा ? भागवत में ही इस बात का उल्लेख हैं कि महायोगी भरत ऋषभदेव के शत पुत्रों में ज्येष्ठ थे और उन्हीं से यह देश भारतवर्ष कहलाया । * भगवान् महावीर तपः प्रधान संस्कृति के उज्ज्वल प्रतीक हैं । भोगों से भरे हुए इस संसार में एक ऐसी स्थिति भी संभव है जिसमें मनुष्य का अडिग मन निरन्तर संयम और प्रकाश के सान्निध्य में रहता हो - इस सत्य की विश्वसनीय प्रयोगशाला भगवान् माहवीर का जीवन है। वर्द्धमान महावीर गौतम बुद्ध की भाँति नितान्त ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। माता-पिता के द्वारा उन्हें भी हाड़-माँस का शरीर प्राप्त हुआ था । अन्य मानवों की भाँति वे भी कच्चा दूध पीकर बढ़े थे; किन्तु उनका उदात्त मन अलौकिक था । तम और ज्योति, सत्य और अनृत के संघर्ष में एक वार जो मार्ग उन्होंने स्वीकार किया, उस पर "येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुणश्चासीत् । येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ।। " --भागवत ५४६.. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृढ़ता से पैर रखकर हम उन्हें निरन्तर आगे बढ़ते हुए देखते है । उन्होंने अपने मन को अखण्ड ब्रह्मचर्य की आंच में जैसा तपाया था, उसकी तुलना में रखने के लिए अन्य उदाहरण कम ही मिलेंगे। जिस अध्यात्म केन्द्र में इस प्रकार की सिद्धि प्राप्त की जाती है उसकी धाराएं देश और काल में अपना निस्सीम प्रभाव डालती हैं। महावीर का वह प्रभाव आज भी अमर है। अध्यात्म के क्षेत्र में मनुष्य कैसा साम्राज्य निर्मित कर सकता है, उस मार्ग में कितनी दूर तक वह अपनी जन्मसिद्ध महिमा का अधिकारी वन सकता है, इसका ज्ञान हमें महावीर के जीवन से प्राप्त होता है। वार-बार हमारा मन उनकी फौलादी दढ़ता से प्रभावित होता है। कायोत्सर्ग मद्रा में खड़े रहकर गगेर के सुख-दुःखों से निरपेक्ष रहते हुए उन्होंने काय-साधन के अत्यन्त उत्कृष्ट आदशं को प्रत्यक्ष दिखाया था। निबंल संकल्प का व्यक्ति उस आदर्श को मानवी पहँच मे वाहर भले ही समझ, पर उसकी सत्यता में कोई संदेह नहीं हो सकता। तीर्थकर महावीर उस मत्यात्मक परिधि के केन्द्र में अखंड प्रज्वलित दीप की भांति हमारे मामने आते हैं। यद्यपि यह पथ अत्यन्त कटिन था; किन्तु हम उनके कृतन है कि उस मार्ग पर जब वे एक वार चले तो न तो उनके पैर मके और न डगमगाये। उन्होंने अन्त तक उसका निर्वाह किया। त्याग और तप के जीवन को रसमय शब्दों में प्रस्तुत करना कटिन है, किंतु फिर भी इस मुन्दर जीवन में कितने ही मार्मिक स्थल हैं, नथा कितनी ही एमी रेखाएं हैं जो उनके मानवीय रूप को माकार बनाती हैं: ___ सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य, तप और अपरिग्रह रूपी महान आदाँ के प्रतीक भगवान महावीर है। इन महाव्रतों को अखण्ड माधना में उन्होंने जीवन का अधिगम्य मार्ग निर्धारित किया था और भौतिक शरीर के प्रलोभनों से ऊपर उठकर अध्यात्म भावों की शाश्वत विजय स्थापित की थी। मन, वाणी और कर्म की माधना उच्च अनन्त जीवन के लिए कितनी दूर तक संभव है, इसका उदाहरण तीथंकर महावीर का जीवन है। इस गंभीर प्रज्ञा के कारण आगमों में महावीर को दोघंप्रज्ञ कहा गया है। ऐसे तीर्थकर का चरित धन्य है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक-कल्याण की कामना से जो तप करते हैं, उनको हमारा प्रणाम । वन्वनात्मक जड़ तत्त्व पर विजय पाकर जिस दिन महावीर स्वामी के जीवन में आत्म चैतन्य का प्रकाश हुआ वह उनके जीवन का प्रथम प्रभात था। उसे ही शास्त्रों में श्री-सूर्योदय' कहा गया है। प्रत्येक सुनहली उषा इसी प्रकार के श्री-सम्पन्न सूर्योदय का संदेश हमारे लिए लाती है। प्रतिदिन बढ़ती हुई आयु के साथ हम इस संदेश का अधिकाधिक साक्षात्कार कर सकें, यही दैनिक पर्यवेक्षण के द्वारा हम सवका प्रयत्न होना चाहिये। -डा. वासुदेवशरण अग्रवाल 00 तीर्घकर महावीर, जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व-पीठिका; महावीर डायरी मादि से। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांधार पन्नगपदोपपदे व विवे दत्वा फणावदीधपो विधिवत्स ताम्याम् । धीरो विसय नय विद्विनिती कुमारी स्वावासमेव च जगाम एतेष्टकार्य। -जनाचार्य जिनसेन, आदि पुराण १९।१८५ (इस प्रकार नयों को जानने वाले धीर-वीर धरणेन्द्र ने उन दोनों को गान्धार पदा और पन्नगपदा नाम की दो विद्याएं दी और फिर अपना कार्य पूरा कर वृषभदेव के चरणों में विनय से झके हुए दोनों राजकुमारों को छोड़कर अपने निवास स्थान पर चला गया।) . . .' *"*"TS (गान्धार विद्या पन्नग विद्या चेति द्वे विद्ये) ___ सील नं. ११५/१९२६-३० सिन्धु-घाटी-मोहन-जो-दारो .... . -'नमि और विनमि प्रजापति वृषभदेव के साथ हो गये, वे वृषभदेव से राज्य माँग रहे थे; किन्तु वृषभदेव मौन थे। उस समय नागराज वृषभदेव की वन्दना करने आया। उस नागराज ने नमिविनमि को उक्त दोनों विद्याएँ दी और उनके लिए वैताड्य पर्वत पर उत्तर व दक्षिण श्रेणी में क्रमशः ६० और ५० नगर वसाये। * 'नमि विनर्माण जायण, नागिन्दो वेज्जदाण वेयड्ढे । उत्तर दाहिण सेढी, सट्ठी पनाम नगराई ।'–नावश्यक नियुक्ति 340 गंधव (प्राकृत), गंधर्व (संस्कृत), गन्दरवा (अवेस्ता), केन्टारम (यूनान)। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VE " : "AJAN . PA . . : . A PER MATHA (पटना, पुरातत्त्व-संग्रहालय. प्राप्त १९१२ ई.) . .. किन्तु एक दूसरा प्रमाण जो सन्देह रहित है, मामने आ जाता है। वह पटना के लोहानीपुर मुहल्ले से प्राप्त एक नग्न कायोत्मर्ग मति है। उस पर मौर्यकालीन भोप या चमक है और श्री काशीप्रसाद जायसवाल से लेकर आज तक के सभी विद्वानों ने उसे तीर्यकर-प्रतिमा माना है। उस दिशा में वह मति अब तक की उपलब्ध सभी बौद्ध तथा बाह्मण धर्म-मम्बन्धी मतियों से प्राचीन ठहरती है। कलिंगाधिपति खारवेल के हाथीगम्फ शिलालेख से भी ज्ञात होता है कि कुमारी पर्वत पर जिन प्रतिमा का पूजन होता था। इन संकेतों से भी इंगित होता है कि जैनधर्म की यह ऐतिहासिक परम्परा और मनश्रुति अत्यन्त प्राचीन थी। -डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...."उक्त नंदिवर्धन ने मगध साम्राज्य को, जो अजातशत्र के समय से ही बनना प्रारंभ हो गया था, और भी बढ़ाया। उसने कलिंग को भी जीत लिया था तथा वहाँ से लूटकर और निधियोंके साथ जिन (जैन तीर्थंकर) की मूर्ति भी ले आया था। ई. पू. ५ वीं शती में जैन मृत्तियाँ बनने का यह अकाट्य प्रमाण है। इसी समय के कुछ पीछे कृष्ण की मूर्ति के अस्तित्व का अनुमान होता है।' 00 १ रूपरेखा, जिल्द २, पृ. ६२४. २ भारतीय मूर्ति-कला, पंचम संस्करण, लेखक-रायकृष्णदास, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारस आबक बाहल.. लख नि रगट उत श बबर ( हो ६ 'काम्बोज कविशा पथ अपार समुद्र सोपोर ज्योतिगय בל. मरु वारवदरवार प्रभाग. गांधार दीव भोप्णारय भिनमाल आबू शा आभीर २५०० वर्ष पूर्व महावीर कालीन भारत मल्ल חסוב मरकट्ट वणवामी णा पथ 2) इतक भुतिबंद विदर्भ मुह सबर गोदावरी कैलाश पज्जत ति वोट (ताम्पारण जो हिन् तान P. भन्नुभ Miss उत्कल पूर्व समुद्र कामरूप सखाराम (प्रागज्योतिष कालमा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-तथ्य सौर मान से काल-गणना २५ जन्म-स्थान २५ जन्म कुण्डली २६ पंचकल्याणक-तिथियाँ २७ विशव काल-निर्णय २८ स्थूल काल-निर्णय २६ Page #24 --------------------------------------------------------------------------  Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौर मान से काल-गणना वर्षायनर्तुयुग पूर्वक मन सौरात्, मासास्तथा च तिथयस्तुहिवांश मानात् । यत् सूतक चिकित्सक वासरांध, तत्सावनाश्च घटिकाविक मार्म मानात् । . (वर्ष, अयन, ऋतु, युगादि का विचार मौर मान से. मास और तिथि विचार चान्द्र मान से. कृच्छ व्रत-सूतक-चिकित्सा के दिन-वार आदि का विचार सावन-मान से तथा घड़ी-पल आदि का विचार नाक्षत्र मान से करना चाहिये ।) वर्द्धमान महावीर का जन्म-स्थान १-कृण्डग्राम – काव्यशिक्षा २-कुंडग्गाम - आवश्यक नियुक्ति ३-क्षत्रियकुण्डग्राम ४-कुण्डलपुर ५-कुण्डलीपुर - चामुण्डराय (वर्द्धमान पुगण) ६-कुण्डपुर-आचण्ण वर्द्धमान पुग़ण ७-सिरिकुण्डगाम – नैमिचन्द्र मूरि, महावीर चरित ८-कुण्डला - आचार्यसक लकीति ९-वैशाली नामकुंडे - वैशाली के उन्खनन मे प्राप्त मुहर पर अंकित Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म-कुण्डली जन्म: चैत्र मुदी १३, मोमवार, ई. पू. ५९९; नक्षत्र : उत्तग फाल्गुनि, मिद्धार्थी मंवत्सर (५३); राशि-कन्या, निशान्त समय महादशा : बृहस्पति; दशा : शनि; अन्र्तदशा : बुध जन्म-स्थान : वैशाली-कुण्डलपुर (क्षत्रिय कुण्डग्राम) पिता : सिद्धार्थ; नाना-चेटक माता : त्रिशला; नानी-सुभद्रा कुल-नाथ, जाति-लिच्छवि, वंश-इक्ष्वाकु, गोत्र-काश्यप १ 'दृष्टे ग्रहैरथ निजोत्त्वगतः समप्रैलंग्ने यथा पतितकालमसूत .राशी। चैत्रे जिनं सिततृतीयजया निशान्ते सोमान्हि चन्द्रमसि चोत्तर फाल्गुनिस्थे ।' -प्रसग कवि, वर्धमान चरित्र, १७।५८. (उच्च ग्रहों द्वारा लग्न के दृष्टिगोचर होने पर, चैत्र शक्ला त्रयोदशी सोमवार को उत्तर फाल्गुनि नक्षत्र पर चन्द्र की स्थिति होने पर निशा के अन्त भाग में रानी ने तीर्थकर महावीर को जन्म दिया ।) (क) 'चत्र सितपक्ष फाल्गनि शशांक योगे दिने त्रयोदश्याम् । जज्ञे सर्वोच्चस्थेषु गृहेषु सौम्येषु शुभलरने ।' (ख) 'मच्छिता णवमासे अट्टयदिवसे चइत सियपक्खे।' -जय धवला, भाग १, पृ. ७८. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच कल्याणक तिथियां गर्भकाल संवत्सर आषाढ़ श. ६ उत्तर-हस्ता, शुक्रवार १७ जन, ५९९ ई. पू. जन्म सिद्धार्थो ___ चैत्र शु. १३ उत्तर फा., सोमवार २७ मार्च, ५९८ ई. पू. दीक्षा सर्वधारी मगसिर कृ. १० उत्तर हस्ता, सोमवार २१ दिसम्बर,५६९ ई. पू. केवलज्ञान शायरी वैशाख शु. १० उत्तर-हस्ता, रविवार २६ अप्रेल, ५५७ ई. पू. निर्वाण शुक्ल कार्तिक कृ. ३० स्वाति, मंगलवार १५ अक्टवर, ५२७ ई. पू. 'वेदशास्व प्रभाव:: सिडि चितश्च कोमलः । मुकुमारो नृपः पूज्यः कविः सिदायिनी नरः ।।' -मानसागरी पति; ५२. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ - कुमार काल २-तप काल ३- देशना काल ४- योगनिरोध ३. ४. गर्भकाल ५. ૨૮ विशद काल - निर्णय २९ वर्ष १२ वर्ष २९ वर्ष ७० वर्ष ७१ वर्ष ७ माह ५ माह ५ माह - ६ माह ९. माह १८ दिन ७ दिन १२ घंटे ३ माह २५ दिन १२ घंटे १. अट्ठावीसं मनयमासे दिवसे य वाग्मयं ॥ ३० ॥ - जय ध; भाग १, पु. ७८. २. गमय छदुमत्थन वाग्मवामाणि पंचमासेय । पण्णरसाण दिणाणि य निरयणमुद्धो महावीरी ॥ ३२ ॥ १२ दिन १५ दिन २० दिन २ दिन वासाणू णनीमं पच य मासे य दीमदिवसे य ||३५|| - जय ध, भाग १, पृ. ८१ पष्ठेन निष्ठित कृनिजिन वर्द्धमानः ||२६|| - ( निर्वाण भक्ति) --संस्कृत टीका-पप्टेन दिन द्वयेन परिसंख्याते प्रायुषि सति । प्रच्छिता नवमासे प्रट्टयदिवसे बहन-मियपवनो । -- जय. ध., भाग १. पु. ७८. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूल काल-निर्णय १. कुमार-काल ३० वर्ष २. तप-काल १२ वर्ष ३. देशना-काल १० वर्ष आचार्य पूज्यपाद ने निर्वाण-भक्ति के निम्नांकित श्लोकों में महावीर का कुमार-काल ३० वर्ष, तप-काल १२ वर्ष और देशना-काल ३० वर्ष माना है। इस प्रकार उन्होंने महावीर की आयु स्थल गणना के अनसार ७२ वर्ष मानी है।* मुक्नवा गृ मार काले त्रिंशद्वर्पाण्यनंनगणगणिः । नि. भ. ५. (क) उम्नपीविधानादश वर्षाण्यभरपूज्यः ।१०। (ब) देशयमानी व्यहरस्त्रिंश द्वर्णाव्यथ जिनेन्द्रः ।१५।। --प्राचार्य पृज्यपाद निर्वाण भक्ति (ग) "द्विमप्ततिः म्यानम्हलु वर्धमान ॥ -वरांग चरित्र, मातनि, ५५ नोक (प) वर्धमान महावीर की परम प्राय केवल ७२ वर्ष थी। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : यह अभिलेख ई. पू. ४४३ का है* " मिणाय' नामक ग्राम जो अजमेर से ३२ मील दूर है. पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ( अजमेर के पुरातत्त्वान्वेषी) ने एक किसान से एक पत्थर प्राप्त किया जिस पर वह तम्बाकू कूटा करता था । पत्थर पर अंकित कुछ अक्षर थे जिसे उन्होंने पढ़ा, अक्षर प्राचीन लिपि में थे, वे अक्षर थे Courte 'विराय भगवताय चतुरमीतिवस कार्य सालामालिनिय रंनि विट माज्झमिक ।' अभिप्राय - महावीर भगवान से ८४ वर्ष पीछे शालामालिनी नाम के राजा ने माज्झमिका नामक नगरी में, जो कि पहले मेवाड़ की राजधानी थी- किसी वात की स्मृति के लिए यह लेख लिखवाया था । यह शिलालेख बीर के निर्वाण के ८४ वर्ष बाद लिखाया गया है । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि पहले वीर निर्वाण संवत् प्रचलित था और लेखादि में उसका उपयोग किया जाता था । उक्त शिलालेख अजमेर म्यूजियम में सुरक्षित है।" यह अभिलेख सेट भागचन्द सोनी के सौजन्य से प्राप्त हुधा । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tion 03tun .. . . + m ... 5 F PAN ACK A.CEK . . . . AAMA -al 4 th 1-14 . -- . HAR MAO" . वैशाली .... xy .. . - - 'वैगाली जन का प्रति पालक, गण का आदि विधाना । जिम लूंढता देश आज उम प्रजातंत्र की माता ।। म्को एक क्षण, पथिक यहाँ मिट्टी को शीश नवाओ । गज सिद्धियों को सम्पत्ति पर फूल चढ़ाते जाओ ।। -राष्ट्रकवि श्री रामधारीसिंह 'दिनकर' Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * महात्मा बुद्ध ने लिच्छवियों को 'स्वर्ग के देवता' कहा है, - - (देखी भिक्खु, लिच्छवियों की परिषद् को, भिक्खओ, देखो लिच्छवियों की परिषद् को ! भिक्खुओं, लिच्छवियों की परिषद् को देव-परिषद् (त्रयस्त्रिशं) समझो !' देवताओं की परिषद्-सी दिखाई पड़ने वाली लिच्छवी - परिपद को देखकर महात्मा गौतम बुद्ध कितने पुलकित और आनन्द-विभोर हो गये ! उन्होंने देव-परिषद् की तरह उसे दिव्य दर्शन कहा ! ) " ३२ ये संमिखवे ! भिक्खुनं देवा तावतिका सष्ट्ठिा । प्रोलोकेथ मिक्खवे ! लिच्छवनी परिसं, अपलोकेथ, मक्खवे ! लिच्छवी परिसरं ! उपसंहरथ मिक्खवे ! लिच्छवे ! लिच्छवी परिसरं तावतिका सदसन्ति ।।' -- महापरिनिव्वाण मुत्त - ६६ ON A PERIOD THE: 'शालीनाम कुण्डे - कुमारामात्याधिकरण (स्य ) '* SEAL LEGEND VAISALI BELONGING TO THE GUPTA READS VESALINAMAKUNDE A. S. 1. R. for 1913-14 Plate XIVII (with an account on p. 134 Seal No. 200„ सिन्धुदेशे विशालाeयपनने चेटको नृपः । श्री मज्जिनेन्द्र पादाब्जसेवन कम भवतः ॥ - प्रागधना कथा कोष ४, पृ. २२८, वैशाली । 'शिल्प विपयद वंशाली नगर मनालव परमाहुच्चेटक मही पतिगं ।' -- चामुण्डरायकृत, वर्धमान पुराण. पू. २६५. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KUMARAMATYADHIKARANA. THIS KUNDA IS CLEARLY RELATED TO "KSHATRIYAKUNDA' (SYA) BECAUSE NO OTHER KUNDA IN THF. AREA IS OTHERWISE KNOWN* ___"एक वैशाली मुद्रा जो कि गातकालीन है, उसमें एक गाथा है, 'वेशालीनाम कण्डे, मारामात्याधिकरण (स्य) जिसका तात्पर्य है कि उपयक्त कुण्ड स्पष्टतया क्षत्रियकुण्ड से सम्बन्धित था, क्योंकि इस प्रकार का दूसरा कुण्ड, इस क्षेत्र में दष्टिगोचर नहीं होता।" __ "चौबीसवं तीर्थंकर महावीर (वद्धमान) के जन्म स्थान के विषय में अनेक मत है। परन्तु यथार्थ यह है कि महावीर का जन्म बंगाली के निकट कुण्डग्राम में हुआ था । मजफ्फरपुर जिले के हाजीपुर सब-डिटोजन में स्थित वसाढ़ हो प्राचीन वैशाली है। कुण्डग्राम को आजकल वासुण्ड कहते हैं। लिच्छुआइ क्षत्रिय कृण्ड या कुण्डलपुर ही महावीर का वास्तविक जन्म-स्थान है। प्राचीन लिच्छवियों की गजघानी बैशाली को ही आजकल वमाद कहते हैं और महावीर को विदेह, विदेहदत्त, विदेह-मुकुमार और वैशालिक भी कहा गया है। यह निष्कर्ष वैगाली नाम से निकाला गया है; क्योंकि मूत्र कृतांग १३ में महावीर को वैशालिक नाम दिया गया है। वैशालिक का अर्थ अन्ततोगत्वा वैशाली का रहने वाला है। अतः महावीर का यह नाम उपयक्त ही था जवकि कुण्डग्राम वैशाली के निकटस्थ था । मिद्धाथ की पत्नी त्रिशला राजा चेटक को पुत्री थी, जो कि वैशाली के गजा थे। उन्हें वैदेही या विदेहदना कहा जाता है क्योंकि व विदेह के शासक वंश में पैदा हुई थी। इस प्रकार महावीर का अपने समय में वेगाली के महत्वपूर्ण लिच्छवी गणतंत्र क्षत्रियों में रक्त-मम्वन्ध था। * A.S.I. R. for 1913-14; Plate xivii (with an account on p. 134; Seal No. 200); An Early History of Vaishali by Dr. Yogendra Mishra; page224. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "वैशाली के ठीक बाहर कुण्डग्राम नामक नगर था। संभवतः वामु कुण्ड के आधुनिक ग्राम के रूप में वह जीवित है और यहीं पर सिद्धार्थ नामक एक सम्पन्न राजा रहते थे जो ज्ञातु नामक एक क्षत्रिय कुल के मुखिया थे। यही सिद्धार्थ वईमान (महावीर) के पिता थे।" एक बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार वैशाली नगर में तीन भाग थे"वैशाली के तीन भाग थे। पहिले भाग में ७००० सोने के गुम्बद वाले मकान, मध्य में १४००० चाँदी के गुम्वददार मकान और अंतिम भाग में २१००० ताँब के गुम्बद वाले मकान थे। इन मकानों में उच्च, मध्यम और निम्नवर्ग के लोग अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार रहते थे" जैनों के अन्तिम तीर्थकर जैनधर्म-ग्रन्थों में "वैशालीय" वैशाली के निवामी कहे जाते हैं और यह भी कहा जाता है कि उनका जन्मम्थान विदेह कुण्डग्राम में था । विदेह और तिरहुत दोनों का प्रयोग प्राचीन लेखकों द्वारा पर्यायवाचो अर्थों में होता है।" १. डा. जाल काष्टियर पोएच. डी. उपसाला विश्वविद्यालय, केमिन हिस्ट्री प्रॉफ इंडिया, जिल्द १, प. १५७. २. रॉक हिल (लाइफ प्रॉफ युग, पृ. ६२)। ३. ग. टी. लांश, मायानॉजिकल सर्वे पॉफ इंडिया 'बमाड़ की चुदाई शोषक, पृ. ६२. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ वैशाली नगर ८०००-महल मकान (हर मकान में उद्यान और तालाब) १,६८,०००-जनसंख्या (वाह्य नागरिक और आन्तरिक नागरिक) ७०००-सुवर्ण गुम्वद १४०००-रजत गुम्वद २१०००-ताम्र गुम्वद ७७०७-संसद् सदस्य अट्ठ खो इमा आनंद ! परिसा. . . . . . . . .. ।' अर्थ:हे आनन्द ! परिषद् आठ प्रकार की होती है। (१) क्षत्रिय-परिषद् (२) श्रमण-परिषद्, (३) ब्राह्मणपरिषद् (विद्वत्-परिषद्), (४) गहपति-परिषद्, (५) चातुर्महाराजिक-परिषद्, (६) त्रायस्त्रिंश-परिषद्, (७) मार-परिषद् (८) ब्रह्म-परिषद् । १. गहे हे हि राजानः स्वस्य स्वस्य प्रियंकरा।' महा. मभा. १०/२. एकक एवं मन्यतं प्रहं राजा प्रहं राजा राजेति । -ललिन बिम्बर ३१२३, पृ. १५. २. महापरिनिबानमुक्त. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्द्यावर्त राज प्रासाद 'आपाढ्स्य मितं पक्षे पष्टयां शशिनि चोत्तरापाढ़ सप्ततल प्रासादस्याभ्यन्तर वर्तिनि ।। नन्द्यावतं* गृह रत्नदीपिकाभिः प्रकाशित, रत्नपर्य के हंस-लिकादि विभषिते ।।' -आचार्य गणभद्र, महापुराणे-उत्तरपुराण ७४।२५३-५४ (आषाढ़ शक्ल पप्ठी के दिन जवकि चन्द्रमा उत्तगषाढ़ नक्षत्र में था, तव सिद्धार्थ की प्रमन्न-द्धि गनी प्रियकारिणी त्रिशला सातखण्ड वाले राजमहल में रत्नदीपिका प्रकाशित नंन्द्यावर्त राजप्रासाद में हंस-तुलिका आदि मे मुशोभित रत्न-पलंग पर मो रही थी । अयोध्या में भारत-चक्रवर्ती के राजभवन के एक पक्ष का नाम भी नन्द्यावर्त था :) नन्यावर्तो निवेगास्य शिविरम्पाल धीयसः । प्रासादो वैजयन्नाख्यो यःसर्वत्र मखावहः ।। -प्राचार्य जिनसेन, प्रादिपुराण ३३/१४७. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर महावीर भूपति मौलि माणिक्य सिद्धार्थो नाम भूपतिः । कुण्डग्राम पुरस्वामी तस्य पुत्रो जिनोऽवतु ॥ - काव्य शिक्षा ३१ ( कुण्ड ग्राम* नामक नगर के क्षत्रिय राजन्य नृपति सिद्धार्थ राजाओं के मुकुटमणि हैं । उनके पुत्र महावीर तीर्थंकर हमारी रक्षा करें ।) जब ग्रीष्म का सूर्य अपनी प्रखर किरणों से जगत् को संतप्त कर डालता है, पक्षियों का उन्मुक्त गगन विहार वन्द हो जाता है, स्वच्छन्द विहारी हिरणों की खुले मैदान की आमोदमयी क्रीड़ा रुक जाती है, असंख्य प्राणघारियों की तृषा बुझाने वाले सरोवर सूख जाते हैं, उनकी सरस मिट्टी भी नीरस हो जाती है, जनता का आवागमन अवरुद्ध हो जाता है, प्राणदायक वायु भी तप्त ल् बनकर प्राणहारक वन जाती है, समस्त थलचर, नभचर प्राणी असह्य ताप से त्राहि-त्राहि करने लगते हैं । तब, जगत् की उस व्याकुलता को देखकर प्रकृति करवट लेती है, आकाश में सजल काले वादल छा जाते हैं, मंसार का सन्ताप मिटाने के लिए उनमें से शीतल जल-विन्दु टपकने लगते हैं. वाप्प ( भाप ) के रूप में पृथ्वी से लिये हुए जल- ऋण को आकाश सूद-समेत चुकाने के लिए जलधारा की झड़ी वाँध देता है । जिसमें पृथ्वी न केवल अपनी प्यास बुझाती है, अपितु असंख्य व्यक्तियों को प्यास 'प्रथ देशोऽस्ति विस्तारी जम्बुद्वीपस्य भारते विदेह इति विख्यातः स्वर्गखण्ड ममः श्रियः । नवाखण्डलनेवाली पद्मिनी खण्डमण्डनम् सुखांभ: कुण्डमाभाति नाम्ना कुण्डपुरं पुरम् ।।' --प्राचार्य जिनसेन, हरिवंश पुराण १/२११-५ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ बुझाने के लिए अपना भंडार भी भर लेती है, जनता के आमोद-प्रमोद के लिये हरी घास की चादर भी विछा देती है, समस्त जगत् का सन्ताप दूर हो जाता है और सभी मनुष्य पशु-पक्षी आनन्द की ध्वनि करने लगते हैं । इसी तरह स्वार्थ की आड़ में जब दुराचार - अत्याचार संसार में फैल जाता है; दीन, हीन, निःशक्त प्राणी निर्दयता की चक्की में पिसने लगते हैं, रक्षक जन ही उनके भक्षक बन जाते हैं, स्वार्थी दयाहीन मानव धर्म की धारा अधर्म की ओर मोड़ देता है, दीन असहाय प्राणियों की करुण पुकार जब कोई नहीं सुनता तव प्रकृति का करुण स्रोत बहने लगता है । वह ऐसा पराक्रमी साहसी वीर ला खड़ा करती है, जो अत्याचारियों के अत्याचार को मिटा देता है* ; दीन-दुःखी प्राणियों का संकट दूर करता है और जनता को सत्पथ दिखाता है । आज ते २६०० वर्ष पहिले भारत की वसुन्धरा भी पाप भार से काँप उठी थी । जनता जिन लोगों को अपना धर्म गुरु पुरोहित मानती थी, धर्म का अवतार समझती थी, उन ही का मुख रक्तमाँस का लोलुप वन गया था, अतः वे अपनी लोलुपता शान्त करने के लिए स्वर्ग, राज्य पुत्र धन आदि का प्रलोभन देकर भोली - अबोध जनता से हवन कराते थे उनमें वकरी आदि अनक मुक, निरीह ओर निरपराध पशुओं, यहाँ तक कि कभी-कभी धर्म के नाम पर कुल्ल करके उनके माँस का हवन करते थे। ज्ञानहीन जनता उन स्वार्थी. मान हुए धर्म-गुरुओं के वचनों को परमात्मा की वाणी तमझकर दयाहीन पाप को धर्म समझ बैठी थी इस तरह दीन, निर्बल, असहाय पशुओं की करुणा-जनक आवाज सुनने वाला कोई न था । इस प्रकार माँस- लोलुप धर्मान्धों का स्वार्थ और जनता का अज्ञान उस पाप कृत्य का संचालन कर रहा था उस समय आवश्यकता थी 'प्राचाराणां विधानेन कुदृष्टीनां च सम्पदाम् । धर्मग्लानि परिप्राप्तमुच्छ्रयन्ते जिनोनमाः ।।' 'बिसय विरतो ममणां छहसवर कारणं भाऊण । तित्थयर नामकम्मं बंध प्रहरेण कालेण ।।' - पद्म पुराण ५/२०६ --भावपाहुड ७६. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-साधारण को ज्ञान का प्रकाश देने की-और पथ-भ्रष्ट धर्मान्धों का हृदय वदलने की. जिससे भारत का पाप-भार हल्का होता और पाप को दुर्गन्ध देश से दूर होती। उस समय धन-जन पूर्ण विशाल नगरी 'वैशाली' गणतन्त्र शासन की केन्द्र बनी हुई थी। उस लिच्छवी गणतन्त्र शासन के गणनायक थे राजा चेटक' । चेटक की गुणवतो त्रिलोक सुन्दरी पुत्रियों में से एक का नाम था 'त्रिशला । त्रिशला का कुण्डलपुर (कुण्ड ग्राम) के शासक ज्ञातवंशीय क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ के साथ उत्तम तिथि पर पाणि-ग्रहण हुआ था, रानो त्रिशला राजा सिद्धार्थ को बढ़त प्रिय थी, अतः उसका अपर नाम प्रियकारिणी भी प्रसिद्धि पा चका था, त्रिशला सर्वगुण-संपन्ना आदर्श नारी थी। एक समय रात्रि को जव रानी त्रिशला नंद्यावर्त राजभवन में, आनन्द से सो रही थी. तव उसे रात्रि के अन्तिम पहर में सोलह सुन्दर स्वप्न दिखायी दिये: १. हाथी, २. बैल, ३. सिंह, ४. लक्ष्मी ५. दो मालाएं, ६. चन्द्रमा, ७. सूर्य, ८. दो मलियाँ, ९. जल से भरा सुवर्ण कलश, १०. तालाव, ११. समद्र, १२. सिहासन, १३. देवों का विमान, १४. धरणेन्द्र का भवन, १५. रत्नों का ढेर, १६. नि म अग्नि। वह रात्रि आषाढ़ मुदी ६ की थी, उस समय हम्त नक्षत्र था। स्वप्नों को देखकर त्रिशला रानी की नांद म्खल गई। 'इन म्वानों का क्या फल होगा ? ' त्रिशला को यह जानने को बहुत उन्कण्ठा हुई। अतः प्रभात समय के कार्य समाप्त करके म्नान करने के अनन्तर वह 'मां चंडवा मावो।-पात्र. च. उ. १६८ चेटकम श्रावको।' विपष्टि. १.६१८ 'नविनय विक्रमादि गुणपंटकने निप चेटक गजंगमनुल मौभाग्य भद्रेनिमिद मुभद्रंग ।। -प्राचप्ण, वर्धमान. पगण १५६/५३ माता-यम्य-प्रभान कम्पिति बृपभो मिहपीतं च लक्ष्मी । मानायुग्मं गणांक विऊपयुगल मृणं कुम्भी नटाकं ॥ पायोधि सिंह गेट मुग्गणनिभृतं व्योमयानं मनोज । बादामी नागवामं मणि गण शिखिनी त जिनं नौमि भक्या।। ॥१॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ी उमंग के साथ राजा सिद्धार्थ के पास पहुँची। राजा सिद्धार्थ ने त्रिशला को बड़े सम्मान और प्रेम के साथ अपनी वायीं ओर सिंहासन पर बैठाया और मुस्कराते हुए आने का कारण पूछा। . रानी त्रिशला ने मधुर वाणी में प्रभात से कुछ पूर्व देखे हुए मोलह सु-स्वप्न मुनाये और गजा सिद्धार्थ से इन स्वप्नों के प्रकट फल पूछे। __राजा सिद्धार्थ निमित्त-शास्त्र के वेत्ता (जानकार) थे, उन्होंने त्रिशला रानी के देखे हुए स्वप्नों का फल जानकर बड़ी प्रसन्नता के साथ रानी में कहा कि तुम एक मौभाग्यशाली, वलवान, तेजस्वी, अतिशय ज्ञानी, महान गुणी, यशस्वी, जगत् के उद्धारक, मुक्तिगामी पुत्र की माता वनोगी। आज वह तुम्हारे उदर में अवतरित हुआ है। इसकी शुभ सूचना देने के लिए ही ये स्वप्न तुम्हें दिखायी दिये है। पस्वप्नपूर्व जीवानां न हि नातु शुभाशुभम्॥ -क्षत्र चूड़ामणि १।१२ अपने घर अत्यन्त मौभाग्यशाली जीव का आगमन जानकर राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला को बहुत हर्ष हुआ। वे उस दिन की प्रतीक्षा करने लगे, जब उन्हें पुत्र-मख देखने का मंगल अवसर प्राप्त होगा। देवों ने इन मंगल क्षणों में राजा सिद्धार्थ के घर वहत उत्सव किया। उसी दिन से ५६ कुमारिका देवियां त्रिशला रानी को मेवा करने के लिए नियुक्त हुई। इन देवियों ने रानी त्रिशला की गर्भावस्था में बहुत अच्छी परिचर्या की। रानी की चिर-नियुक्त परिचारिका प्रियंवदा भी रानी की सुख-सुविधा में पूरा योग दे रही थी : प्रियंवदा ने रानी को किसी भी तरह शारीरिक तथा मानसिक कष्ट नहीं होने दिया। विविध मनोरंजनों द्वारा उसने रानी त्रिशला का चित्त प्रसन्न रखा, उन्हें किसी तरह का खेद न होने दिया। "मिडार्य नपनि तनयो भारत वास्ये विदेह कुम्रपुरे। देन्या प्रियकारियां मुस्वप्नान्संप्रदार्य विभुः ॥' –निर्वाण भक्ति ४. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मोत्सव नौ मास सात दिन वारह घंटे व्यतीत होने पर चैत्र शुक्ला यादशी* के शुभ दिन अर्यमा योग में रानी त्रिशला ने एक अनुपम, तेजस्वी, सांग सुन्दर पुत्र को प्राची से होने वाले सूर्योदय की भाँति, जन्म दिया। उस समय समस्त जगत् में शान्ति की लहरें विजली की तरह फैल गईं। नारकीय यंत्रणाओं से निरन्तर दुःखी जीवों को भी उस क्षण में शान्ति की साँस मिली। समस्त कुण्डलपुर में आनन्द-भेरी वजने लगी। सारा नगर हर्ष में निमग्न हो गया। पुत्र-जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में राजा सिद्धार्थ ने वहुत दान किया और राज्योत्सव मनाया। जव मौधर्म का इन्द्रासन स्वयं कम्पित हो उठा तव इन्द्र को अवधिजान से ज्ञात हआ कि कुण्डलपूर म अन्तिम तीर्थंकर का जन्म हुआ है । वह तत्काल समस्त देव-परिवार को साथ लेकर, नृत्य-गान करते हुए कुण्डलपुर आया। वहाँ राजभवन में पहुँच उसने अगणित मंगल महोत्सव मनाये । कुण्डलपुर का कण-कण उन देवोत्सवों में गूंज उठा। इन्द्र ने माता त्रिशला की स्तुति करते हए कहा "माता, त जगन्माता है। तेग पुत्र विश्व का उद्धार करंगा। जगत् का भ्रम और अज्ञान दूर करके विश्व का पथ-प्रदर्शक वनेगा। तू धन्य है ! इम जगत् में तुझ जैमी भाग्यशालिनी माता कोई और नहीं है।" इन्द्र ने राजा सिद्धार्थ का भी वहृत सम्मान किया। तदनन्तर इन्द्राणी उस नवजात वालक को प्रसूति-गह मे वाहर ले आयी और माता के पास एक अन्य कृत्रिम वालक रख आयी। इन्द्र उस वाल तीर्थकर को गोद में लेकर गवत हाथी पर आम्ढ़ हो, मुमेरु पर्वत * 'मित पक्ष फाल्गनि गांगकांगे दिनं त्रयोदग्या । जो स्वोन्मस्थेषु पट्टषु मोम्येष मुभली ॥' -निर्वाण भक्ति ५. 'पार्थिव पारनं तीर्थकदृदयाचलं प्राप्तानेकार्य परिपालिन बुध मार्च निकाय नेयोलने कृतार्थ ।। -प्रावण, वर्धमान. पु. (कन्नड़) १३/३६. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ • पर गया । वहाँ सिंहासन पर वाल तीर्थंकर का अभिषेक किया । अभिषेक के बाद कुमार तीर्थंकर को जब इन्द्राणी पोंछ रही थी तब वे उनके कपोल-प्रदेश के जल - विन्दुओं को सुखाने में असमर्थ रहीं । ज्यों-ज्यों जितना वे उन्हें पोंछती थीं, त्यों-त्यों वे उतने ही विशेष दमक उठते थे । तदनन्तर इन्द्राणी की भ्रान्ति स्वयं ही दूर हो गयी; क्योंकि वास्तव में वे जल की बंदें नहीं अपितु इन्द्राणी के आभूषणों कं प्रतिविम्व मात्र थे जो तीर्थंकर के स्वच्छ वदन पर दमक कर जल- विन्दुओं की भ्रान्ति उत्पन्न कर रहे थे । तीर्थंकर स्वभावतः सुन्दर थे, उन्हें सुन्दर वस्त्राभूषण पहिनाये गये और खव हर्षोत्सव किया गया। नंद्यावर्त राज प्रासाद के ध्वज पर सिंह का चिह्न था, अतः अन्तिम तीर्थंकर का चरण चिह्न 'सिंह' रखा गया । जन्म समय मे ही राजा सिद्धार्थ का वैभव, यश, प्रताप, पराक्रम अधिक बढ़ने लगा था, इस कारण उस वालक का नाम' वर्धमान " रखा गया। १- षोडशाभरण धन्वा शेखर पट्टहार पदकं ग्रैवेयकालंबकम् । केयुगं गदमध्य बंधूर कटीमुत्रं च मद्रान्वितम् ।। चचत्कुंडल कर्णपूर पाणि ये कंकणम । मजी कटकं पदे जिनपतेः श्री गधमद्रांकितम ।' राजकुमार महावीर के सोलह प्राभषणों का वर्णन यहां प्रस्तुत है- १- शेखर पहार : पदक ४-प्रवेयक ५- प्रालंबक ६-केयर - अंगद - मध्यर - कटीसूत्र १० - महा ११ - चचल कुंडल १० - वर्णपुर १३ -कंकण १८-मंजीर १५ - कटक १६- श्रीगंध । 'महाध्वजा ।' इति हेमचन्द्रः । मिट्टी लांछनान्यतां । प्रतिष्ठा ११ / ३. 'नद्गर्भन प्रतिदिन स्वकुलस्य लक्ष्मी दवा मदा विधकलामिव वर्धमानान सार्धं मुरं भंगवतां दशमे तम्य श्री वर्धमान इति नाम चकार राजा । 2. -वर्धमान चरित्र. १७-२१. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिषेकोत्सव के पश्चात् इन्द्र ऐरावत हाथी पर सवार होकर राजमार्ग से कुण्डलपुर आया। वाल-तीर्थंकर वर्धमान को इन्द्राणी पुनः माता त्रिशला के पास लिटा आयी; तदनन्तर समस्त देव-परिवार लौट गया। यह समय पूर्ववर्ती तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के २५० वर्ष पीछे का तथा ईसा से ५९९ वर्ष पहले का था। तीर्थकर वर्धमान शुक्ल पक्ष की द्वितीया के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगे। अपनी वाल-लीलाओं से माता-पिता, समस्त राज-परिवार को आनन्दित करने लगे। जन्म से ही उनके शरीर में अनेक अनुपम विशेषताएं थीं-जैसे, उनका शरीर अनुपम मुन्दर था, शरीर के समस्त अंग-उपाङ्ग पूर्ण एवं ठीक थे, कोई भी अंग लेशमात्र हीन. अधिक, छोटा या वड़ा नहीं था; शरीर से सुगन्ध आती थी, पमीना नहीं आता था। वे वलशाली थे, उनके शरीर का रक्त दूध की तरह पवित्र था। उनकी पाचन-शक्ति असाधारण थी, जिससे उन्हें मल-मूत्र नहीं होता था; वाणी वहुत मधुर थी; शंख, चक्र, कमल, यव, धनुष आदि १००८ शुभ लक्षण एवं चिह्न उनके शरीर में थे। वे जन्म से ही महान ज्ञानी (अवधिज्ञानी) थे। जिस तरह वाहरी पदाथों को जानने के लिए उनको ज्ञान-ज्योति असाधारण थी, उमी तरह उनमें आध्यात्मिक स्वानुभूति भी अलौकिक थी, पूर्वभव मे उदीयमान क्षायिक सम्यक्त्व (अविनाशी-म्वात्मानुभव) उनको था। ऐमी अनेक अनुपम महिमामयी विशेषताओं के पुज तीर्थंकर थे । उत्तरोत्तर वढ़ते हा जव तीर्थकर वर्द्धमान को वय आठ वर्ष की हुई. तब उन्होंने विना प्रेरणा के स्वयं आत्मशुद्धि की दिशा में पग बढ़ाते हुए हिमा. असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों के आंशिक त्याग की प्रतिज्ञा करके अहिंमा, मत्य, अचार्य, * 'पाश्वशतीर्थ मन्ताने पंचाशद् द्विशताब्द के नदभ्यन्तर बात्यमहावीरोज गातवान् ।।' उनपुगण २७, पृ. ४६२. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य और सीमित परिग्रह रूप पंच अणुव्रतों का आचरण किया। 'स्वायुरावष्ट वर्षम्यः सर्वेषां परतो भवत् । उदिताष्ट कवायाणां तीवां देश संयमः ॥' -आचार्य गुणमद्र, उत्तर पुराण, ६।३५ वईमान के नामान्तर श्री वर्द्धमान तीर्थंकर के असाधारण ज्ञान की महिमा सुनकर मंजयंत और विजयंत नामक दो चारण ऋद्धि-धारक मुनि अपनी तत्त्व-विषयक कुछ शंकाओं का समाधान करने के लिए उनके पास आये; किन्तु श्री वर्द्धमान तीर्थंकर के दर्शन करते ही उनकी शंकाओं का समाधान स्वयं हो गया, उन्हें समाधान के लिए कुछ पूछना न पड़ा, यह आश्चर्य देखकर उन मुनियों ने तीर्थंकर वर्द्धमान का अपर नाम 'सन्मति' रख दिया।' 'तरवार्षनिर्णयात्माप्या सन्मतित्वं सुबोधवाक् । पूग्यो बागमाद्भवात्राकलंकाबभूविष ॥' -उत्तरपुराण ७३।२ एक दिन कुण्डलपुर में एक बड़ा हाथी मदोन्मत्त होकर गजशाला मे वाहर निकल भागा। वह मार्ग में आने वाले स्त्री-पुरुषों को कुचलता हुआ, वस्तुओं को अस्त-व्यस्त करता हुआ इधर-उधर घूमने लगा। उसे देखकर कुण्डलपुर की जनता भयभीत हो उठी और प्राण वचाने के लिए यत्र-तत्र भागने लगी। नगर में भारी उथल-पुथल मच गयी। श्री वर्द्धमान अन्य वालकों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे. मदोन्मत्त हाथी उधर ही जा झपटा। हाथी का काल जैसा विकराल रूप देख, १. सन्मतिर्महातीरी महावीरोऽन्त्य काश्यपः। नापाययो वर्षमानो यत्तीमिह माम्प्रतम् ॥' -धनंजय नाममाला ११५ 'पलं तरिति तं भक्त्या विभूष्योविभूषण । बोरः श्रीपर्षमानवत्वस्याहितवं व्यधात् ।। -उत्तरपुराण, ७४/२७६. २. 'मनोनुकतंच बोनुकतं नानाविधं क्रीडनमाचरन्ति ।। ये भरता जिनवालकेल ते सन्तु नामी कुलजाः कुमाराः॥ -प्रति. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेलने वाले वालक भयभीत होकर इधर-उधर भागे परन्तु वर्द्धमान ने निर्भय होकर कठोर शब्दों में हाथी को ललकारा । हाथी को वर्द्धमान की ललकार सिंह-गर्जना से भी अधिक प्रभावशाली प्रतीत हुई अतः वह सहमकर खड़ा हो गया। भय से उसका मद सूख गया। तव वर्द्धमान उसके मस्तक पर जा चढ़े और अपनी वज्र मुष्टियों (मक्कों) के प्रहार से उसे विल्कुल निर्मद कर दिया। ___ तव कुण्डलपुर की जनता ने राजकुमार वर्द्धमान की निर्भयता और वीरता की वहुत प्रशंसा की और वर्द्धमान को 'वीर' नाम से पुकारने लगी, इस तरह राजकुमार वर्द्धमान का तीसरा नाम 'वीर' प्रसिद्ध होगया । एक दिन संगम नामक एक देव अत्यन्त भयानक विपधर का रूप धारण कर राजकुमार की निर्भीकता तथा शक्ति की परीक्षा करने आया। जहां पर वर्द्धमान कुमार अन्य किशोर वालकों के साथ एक वृक्ष के नीचे खेल रहे थे । वहाँ वह विकराल सर्प पुकार मारता हुआ उस वृक्ष से लिपट गया। उसे देखकर सब लड़के वहुत भयभीत हुए अपने-अपने प्राण बचाने के लिए वे इधर-उधर भागने लग, चीत्कार करने लगे. कुछ भय से मच्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े; परन्तु कुमार वर्द्धमान सर्प को देखकर रंच मात्र भी न डरे। उन्होंने निर्भयता पूर्वक सर्प के साथ कोड़ा की और उसे दूर कर दिया। तव राजकुमार वर्द्धमान की निर्भयता देखकर वह देव बहुत प्रसन्न हुआ और उसने प्रगट होकर वर्द्धमान तीर्थकर की स्तुति की एवं उनका नाम 'महावीर' रखा और वालक की कधे पर बिठाकर नृत्य करने लगा । कुमार वर्द्धमान के अतिरिक्त अन्य तीन कुमार थेचलघर, काकघर और पक्षधर । * 'बटवक्षमर्थकदा महान्तं मह डिभगाधिकाप वर्धमानम् । ग्ममाणमुदीक्ष्य मंगमाख्यो विबुधस्त्रायिन ममाममात् ।।' -प्रमग महाकविकृत, वर्षमान पग्त्रि, /६५.. 'संगमकनेंबदेवं तां गडकलुनुमिदं भय गहिन्यं ।। -पाचण्ण, वर्धमान पु. १४/६७. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ बकरे जैसे मुखवाला संगमदेव जो वर्धमान की निर्भयता से प्रभावित होकर उन्हें कन्धे पर बैठाये नृत्य-विभोर है' विवाह का उपक्रम राजकुमार वर्द्धमान जन्म से ही सर्वांग सुन्दर थे, किन्तु जब उन्होंने कैशोर्य समाप्त करके यौवन में पदार्पण किया तव उनकी मुन्दरता उनके अंग-प्रत्यंग से और अधिक झाँकने लगी । उनके असाधारण ज्ञान, बल, पराक्रम, तेज, तथा यौवन की वार्ता प्रसिद्ध हो चुकी थी, यह प्रसंग सेनापति चामुण्डराय कृत' वर्षमान पुराणम्' (कन्नड़ भाषा) के पृष्ठ २६१ पर पाया है। प्रस्तुत चित्र यमुना, मथुरा से प्राप्त ८ इंची मति-शिलापट्ट का है । यह मधुरा पुरातत्त्व संग्रहालय, संग्रह सं. १११५ (हरीनाई गणेन) की कुषाण कालीन प्रतिमान्तर्गत है। क्रीडारत राजकुमार है-ईमान, बलधर, काकघर, पक्षधर । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः अनेक राजाओं की ओर से महावीर के साथ अपनी-अपनी राजकुमारी के पाणिग्रहण प्रस्ताव आने लगे। कलिंग-नरेश राजा जितशत्रु की सुपुत्री राजकुमारी यशोदा उन सब राजकुमारियों में त्रिलोक सुन्दरी एवं सर्वगुण सम्पन्न नवयवती थी; अतः राजा सिद्धार्थ और त्रिशला ने वर्द्धमान कुमार का पाणिग्रहण उसी के साथ करने का निर्णय किया; तदनसार वे राजकुमार का विवाह वहुत बड़े समारोह के साथ करने के लिए तैयारी करने लगे। अपने विवाह की वात जव कुमार महावीर को ज्ञात हुई तो उन्होंने उसे स्वीकार न किया। माता-पिता ने बहुत कुछ समझाया परन्तु कुमार वर्द्धमान विवाह बन्धन में बंधने के लिए तत्पर न हुए। यौवन के समय स्वभाव से नर-नारियों में काम-वासना प्रवल वेग से उदीयमान हो उठती है, उस कामवेग को रोकना साधारण मनुष्य के सामर्थ्य से बाहर हो जाता है। मनुष्य अपने प्रवल पराक्रम से महान् वलवान वनराज सिंह को, भयानक विकराल गजगज को वश में कर लेता है, महान योद्धाओं की विशाल मंना पर विजय प्राप्त कर लेता है, किन्तु उसे कामदेव पर विजय पाना कठिन हो जाता है । मंसार में पुरुष-स्त्री, पश-पक्षी आदि समस्त जीव कामदेव के दाम वने हा है। इसी कारण नर-नारी का मिथुन (जोड़ा) काम-शान्ति के लिए जन्म-भर विषय-वासना का कीड़ा बना रहता है। उस अदम्य काम "जिनेन्द्र वीरम्य ममुद्भवोन्मवे तदागनः कुण्डपुरं मुहुन्पर: मुपूजिता कुण्डपुरस्यभूभृता नृपाध्यमाबण्डल तुल्य विक्रम :।। यशोदयायां मुतया यशोदया पवित्रया वीर विवाह मंगलं अनेक कन्या परिवारया रुहत्ममीक्षितुं तंग मनोरथं नदा ।। स्वितावना तपसि स्वयं भुवि प्रजात कैवल्यविशाललोचने । जगति भूत्यै विहरत्यपि मिति शिति विहाय स्थित वास्तपम्ययम् ।। -हरिवंश पुराण, ६६/६. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ वासना का लेशमात्र भी प्रभाव क्षत्रिय नवयुवक राजकुमार वर्द्धमान के हृदय पर न हुआ। - राजकुमार महावीर ने कहा कि मैं जगत् के जीवों को मिथ्या मसार-बंधन से मुक्त होने का मार्ग वताने आया हूँ फिर मैं स्वयं गृहस्थाश्रम के बन्धन में क्यों पडं ? फैली हुई हिसा, अज्ञान, भ्रम, दुराचार, अत्याचार का मंसार से निराकरण करने का महान् कार्य मेरे सामने है ; अतः मैं कामाग्नि का दास वनकर अपनी शक्ति का अपव्यय नहीं कर सकता। अपने पुत्र का उच्च ध्यय सिद्ध करने के लिए ब्रह्मचर्य को अटल भावना जानकर रानी त्रिशला और राजा सिद्धार्थ चुप रह गये। उन्होंने मोचा कि वर्द्धमान हमारा पुत्र है, वय में हमसे छोटा है, किन्तु ज्ञान, आचार-विचार में हममें बहुत बड़ा है। हित-अहित की वार्ता तथा कर्तव्य का निर्देश हम उमे क्या समझायं, वह सारे जगत् को समझा सकता है; अतः वह जस पुनीत पथ में आगे बढ़ना चाहता है, हमें उसमें बाधा डालना उचित नहीं। __ ऐसा परामर्श करके उन्होंने कालग-नरेश जितशत्रु के राजकुमार वर्द्धमान के साथ यशोदा के विवाह का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और फिर कभी वर्द्धमान को विवाह करने के लिए संकेत भी नहीं किया। तीर्थकर वर्द्धमान के पिता राजा सिद्धार्थ कुण्डलपुर के शासक ये। उनके नाना राजा चेटक वैशाली-गणतन्त्र के प्रमुख नायक थे, वे अनेक राजाओं के अधीश्वर थे. अतः राजकुमार वर्द्धमान को सव तरह के राज सुख प्राप्त थे। कोई भी शारीरिक या मानसिक कष्ट उन्हें नहीं था। वे यदि चाहते तो पाणिग्रहण करके वैवाहिक काम-सुख का उपभोग और कुण्डलपुर के राज सिंहासन पर बैठकर राज शासन भी कर सकते थे; परन्तु जिस तरह जल में रहता हुआ कमल भी जल से अलिप्त रहता है उसी तरह राजकुमार वर्द्धमान सर्वसुख-सुविधा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पन्न राजभवन में रहकर भी संसार की मोह-माया से अलिप्त रहे; अखण्ड वाल ब्रह्मचर्य से शोभायमान रहे।' इस तरह राजभवन में रहते हुए उन्होंने २८ वर्ष, ७ मास. १२ दिन का समय ब्रह्मचर्य से व्यतीत कर दिया।' संसार से वैराग्य ___ तदनन्तर वर्द्धमान को एक दिन अचानक अपने पूर्वभवों का स्मरण हो आया। उन्हें ज्ञात हुआ कि 'मैं पूर्वभव में मोलहवें स्वर्ग का इन्द्र था, वहाँ मैं २२ सागर तक दिव्य भोग-उपभोगों को भोगता रहा। उसमें पूर्वभव में मैंने संयम धारण करके तीर्थकर-प्रकृति का वध किया था जिसका उदय इस भव में होने वाला है। इस समय मंसार में धर्म के नाम पर पाप और अत्याचार फैलता जा रहा है, अतः पाप और अज्ञान को दूर करना परम आवश्यक है। जब तक मैं मंयम ग्रहण न करूंगा, तव तक मैं आत्मशुद्धि नहीं कर सकता और जब तक स्वयं शुद्ध-बुद्ध १ 'वासुपूज्यो महावीरी मल्लि: पावों यदुनमः । 'कुमार' निर्गता गेहान् पृथिवीपतयोऽपरे ।' -गद्म पुगण २०/६७. 'णेमी मल्ली वीगे कुमार कालमि वामपूज्या ये पामो विय गहिदनवा मेम जिणां रग्ज चग्मि मि ।।' --निलीयपणनी ४ ६.७२. 'वीरं परिदमि. पास मनिं च वामपुज्जं च । p.. मोनण जिणं अवमेमा मामि रायाणी ।।24।। गय कुलमु वि जाया विमुद्ध बंमेमु बनिय कुलंग। न च इच्छियामिमैया कुमारवामम्मि पवइया ।।:-।।' -प्रावण्यक निक्नि 'वामुपूज्यस्तथा मल्लिनेमिः पार्श्वेऽथ मानः । कुमाराः पञ्च निप्कान्नाः पृथिवीपनयः गरे।। --कानिकयानप्रेक्षा, प. ६५.. 'प्रनिर्वागद्रेकस्त्रिभुवनजयी काममुभटः । कुमागवस्थायामपि निजबलायेन विजिनः ।। स्फरनियानंदप्रशमपदग़ज्याय म जिनी । महावीर स्वामी नयनपथगामी भवन में ।। - महावीगष्टक मात्र, 'दुक्कर तब चरणरो खंति खमो उरगमनंग य। अप्प पर तुल्ल चित्तो मोणव्यय पाणभाई य।।'-महावीर चरित्र (मिचन्द्र) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न वन जाऊँ, तब तक विश्व-कल्याण नहीं कर सकता। अतः मोह ममता के कीचड़ से बाहर निकल कर मुझे आत्मविकास करना चाहिये। इस प्रकार वैराग्य-भावना वर्द्धमान के हृदय में जाग्रत हुई, उसी समय लौकान्तिक देव उनके सामने आ खड़े हुए और वर्द्धमान से कहा कि 'आपने जो संसार की मोह-ममता तथा विषय-भोगों से विरक्त होकर संयम धारण करने का विचार किया है, वह वहुत हितकारी है। आप तप, त्याग, संयम के द्वारा ही अजर-अमर पद प्राप्त करेंगे; विश्व-जाता-दृष्टा वनेंगे और विश्व का उद्धार करेंगे।' लौकान्तिक देवों की वाणी सुनकर वर्द्धमान का वैराग्य और अधिक प्रगाढ़ तथा अविचल हो गया, अतः उन्होंने कुण्डलपुर का राजभवन छोड़कर एकान्त वन में आत्म साधना करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। ब्राह्मणों को राजा सिद्धार्थ ने किमिच्छक दान दे कर मनुष्ट किया। उमी समय इन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ, तव इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान में अन्तिम तीर्थकर वर्द्धमान को वैराग्य-भावना का समाचार जाना; अतः वह देव गण के माथ तत्काल कुण्डलपुर के राजभवन में आ पहुंचा। वहाँ उसने आकर वहुत 'हर्ष-उत्सव' किया। जव त्रिशला रानी को राजकुमार वर्द्धमान के मंसार से विरक्त होने का समाचार ज्ञात हुआ तव वह पुत्र-स्नेह में विह्वल हो गयी। उसके हृदय में विचार आया कि 'राजसुख में पला हआ मेरा पुत्र वनपर्वतों में नग्न रहकर सर्दी, गर्मी के कष्ट किस तरह सहन करेगा? वन-पर्वतों की कँटीली भूमि कंकरीली भमि पर अपने कोमल नंगे पैरों से कैसे चलेगा? नंगे सिर धप, ओस, वर्षा में कैसे रहेगा? कहाँ कठोर तपश्चर्या! और कहाँ मेरे पुत्र का कोमल शरीर !! ऐसा सोचते ही विशला मूच्छित हो गयी। परिवार के व्यक्तियों ने तथा दासियों ने शीतल उपचार से उसकी मा दूर की। आये हुए देवों ने माता 'दीमोन्मुखस्तीर्थकरो जनेभ्यः । किमिच्छकं दानमहो ! ददो यः॥' -प्रति. १०/१ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशला को समझाया कि, माता! तेरा पुत्र महान् वलवान, धीर-वीर है, वज्र-वृषभ-नाराच संहनन वाला है। अब वह उस सर्वोच्च पद को प्राप्त करने जा रहा है जिससे ऊँचा पद और कोई होता नहीं। तेरा पुत्र संसार से केवल आप अकेला ही पार नहीं होगा बल्कि असंख्य व्यक्तियों को भी संसार से उत्तीर्ण कर देगा। वीर माता! मोह का आवरण हटा दे !! तु धन्य है ! तुझे तारण-तरण, विश्व उद्धारक तीर्थंकर की जननी कहकर संसार अनन्त काल तक तेरा यशोगान करेगा।' देवों का संबोधन पाकर माता त्रिशला प्रबुद्ध हुई, फिर भी होने वाले पुत्र-वियोग से तथा यह साचकर कि विषधर सर्प, भयानक सिंह, वाघ आदि अन्य जीवों से भरे वन, पर्वत. गुफाओं में मेरा पुत्र अकेला कैसे रहेगा? उसका चित्त शोकाकुल रहा। वर्द्धमान ने अपनी माता, अपने परिवार तथा प्रियजनों को आश्वासन देकर उनसे विदा ली। कुण्डलपुर (वैशाली) से वाहर तगोवन में वर्द्धमान को ले जाने के लिए 'चन्द्रप्रभा* नामक मुन्दर दिव्य पालकी लायी गयी । उस पालकी में वर्द्धमान विराजमान हुए। जय-जयकार के हर्ष-घोष के साथ पहिले उस पालकी को मनुष्यों ने अपने कंधों पर उटाया, तदनन्तर इन्द्रों ने, देवों ने उस पालकी को अपने कन्धों पर रखा और आकाश-मार्ग से ज्ञातृखण्ड-वन में पहुंचे। वन हरा-भरा था, वहाँ शुद्ध वायु का निर्वाध संचार था। किसी तरह का कोलाहल न था और न मन को क्षुब्ध या विलित करने वाला कोई अन्य पदार्थ था। उस नीरव शान्त एकान्त वन में पालकी लाकर रखी गयी । तीर्थकर वर्द्धमान उस पालकी में बड़े उत्साह के साथ वाहर आये । वहाँ एक स्वच्छ शिला थी, जिस पर इन्द्राणी न रत्नचर्ण में स्वस्तिक (y) की कलापूर्ण रचना की थी। तीर्थंकर वर्षमान उस पर जाकर बैठ गये। तदनन्तर उन्होंने अपने शरीर के समस्त वस्त्राभूषण 'चन्द्रप्रभायशिविकामधिग्दो दृढ़वनः । अढां परिवृढेननं णां ततो विद्याधराधिपः ।।' -उनर पुराण, ७:/२६६. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर उतार दिये। अपने कृत्रिम (वनावटी) वेष को हटाकर प्राकृतिक स्वतंत्र, नग्न, श्रमण वेष धारण किया। अपने हाथों से अपने सिर के वालों का पाँच मुट्ठियों से लोंच किया, जो शरीर से मोह-त्याग का प्रतीक था। फिर 'नमः सिद्धेभ्यः' कहते हुए सिद्धों को नमस्कार करके पंच महाव्रत और पिच्छी-कमण्डलु धारण किये और सर्व सावद्य* का त्याग करके पद्मासन लगाकर आत्म ध्यान (सामयिक) में लीन हो गये। इन्द्र न तीर्थकर के वालों को समुद्र में क्षेपण करने के लिए रत्नमंजुषा में रख लिया। इस प्रकार अन्तिम तीर्थंकर महावीर का मगसिर वदी दशमी को हस्त तथा उत्तरा नक्षत्र के मध्यवर्ती समय में दीक्षाउत्सव करके समस्त इन्द्र, देव, मनष्य, विद्याधर अपने-अपने स्थानों को चले गये। वाहरी विचारों से मन को रोककर मौन भाव से अचल आसन में तीर्थंकर महावीर जव आत्मचिन्तन में निमग्न हुए, उसी समय उनके मनः पर्यय ज्ञान का उदय हुआ, जो निकट भविष्य में केवल ज्ञान के प्रकट होने का सूचक था । यह तीर्थंकर महावीर के आत्म-अभ्युदय का प्रथम चिह्न था । तपस्या महान कार्य-सिद्धि के लिए महान् परिश्रम करना पड़ता है। श्री वर्द्धमान तीर्थकर को अनादि समय का कम-वन्धन, जिसने अनन्त शक्तिशाली आत्माओं को दीन, हीन, बलहीन बनाकर संसार के बन्दोघर (जेलखाने) में डाल रखा है, को नष्ट करने के लिए कठोर तपस्या करनी पड़ो, तदर्थ वे जब आत्म-साधना में निमग्न हो जाते थे, तब कई दिन तक एक ही आसन में अचल बेठे या खड़े रहते थे। कभी-कभी एक मास तक लगातार आत्म ध्यान करते रहते थे। • 'सहप्रवर्धन पापेन वर्तते इति सावधं-संसार कारणम्' Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ । उस समय भोजन-पान बन्द रहता ही था; किन्तु इसके साथ बाहरी . वातावरण का भी अनुभव न हो पाता था शीत ऋतु में पर्वत पर या नदी के तट पर अथवा किसी खुले मैदान में बैठे रहते थे, उन्हें भयंकर शीत का भी अनुभव नहीं होता था । ग्रीष्म ऋतु में वे पर्वत पर बैठे ध्यान करते थे, ऊपर से दोपहर की धूप, नीचे से गरम पत्थर, चारों ओर से लू (गरम हवा ) उनके नग्न शरीर को तपाती रहती थी; किन्तु तपस्वी वर्द्धमान को उसका भान नहीं होता था । वर्षा ऋतु में नग्न शरीर पर मूसलाधार पानी गिरता था, तेज हवा चलती थी परन्तु महान् योगी तीर्थंकर महावीर अचल आसन से आत्मचिंतन में रहते थे । वन में सिंह दहाड़ रहे हैं, हाथी चिंघाड़ रहे हैं, सर्प फुंकार रहे हैं; परन्तु परम तपस्वी महावीर को उसका कुछ भान ही नहीं है । प्रथम तपस्वी महावीर ने कुल नामक नगर में नृपति दानतीर्थ वकुल' के राज प्रासाद में आहार ग्रहण किया था । जव वे आत्मध्यान से निवृत्त हुए और शरीर को कुछ भोजन देने का विचार हुआ तो निकट के गाँव या नगर में चले गये । वहाँ यदि विधि-२ -अनुसार शुद्ध भोजन मिल गया तो निःस्पृह भावना से थोड़ा-सा भोजन कर लिया और तपस्या करने वन, पर्वत पर चले गये । कहीं दो दिन ठहरे, कहीं चार दिन, कहीं एक सप्ताह; फिर वहाँ से विहार करके किसी अन्य स्थान को चले गये । यदि सोना आवश्यक समझते, तो रात को पिछले पहर कुछ देर के लिए, एक करवट से सो जाते । इस तरह वे आत्मसाधना के लिए अधिक-से-अधिक और शरीर की स्थिति के लिए कम-से-कम समय लगाते थे । १ 'गिरिकन्दर दुर्गेषु ये वर्मान्ति दिगम्बराः पाणिपात्रपुटाहारानं यन्तिपरमां गतिम्' । - यांगि भक्ति २. २ कुलाभिधानधरणीपालंगनुकलवृत्ति पडियरिनांवं ।' - प्राण कवि, वर्धमान पु. १५ / १४. 'धर्मो महात्मा बकुलाभिधानः प्रवतितस्तैरेव दानधर्मः ।।' —वरांग चरित्र, पृ. २७३ । चामुण्डरायकृन, वर्धमान पुराण २६१ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसी कठोर तपश्चर्या करते हुए वे देश-देशान्तर में भ्रमण करते रहे, नगर या गाँव में केवल भोजन के लिए आते थे। उसके सिवाय अपना शेष समय एकान्त स्थान, वन, पर्वत, गुफा नदी के किनारे, श्मशान, वाग आदि निर्जन स्थान में बिताते थे। वन के भयानक हिंसक पशु जव तीर्थंकर महावीर के निकट आते तो उन्हें देखते ही उनकी क्रूर हिंसक भावना शान्त हो जाती थी; अतः उनके निकट सिंह, हरिण, सर्प, न्यौला, विल्ली, चहा आदि जाति-विरोधी जीव भी द्वेष, बैर भावना छोड़कर प्रेम, शान्ति से क्रीड़ा किया करते थे ।* चन्दना-उद्धार इस प्रकार भ्रमण करते-करते तीर्थंकर महावीर एक वार वत्स देश की कौशाम्बी नगरी में आहार के लिए आये । वहाँ एक सेठ के घर सती चन्दना तलघर में वन्दी (कंदी) जैसे दिन काट रही थी, वहुत विपत्ति में थी, उसने सुना कि तीर्थंकर महावीर कौशाम्बी में पधार हैं। यह मुनते ही उसके हृदय में भावना हुई कि 'मैं भगवान को आहार कराऊँ', किन्तु वह तलघर के वन्दीगृह में पड़ी थी, बेड़ियाँ उसके पैरों में थीं, तपस्वी वर्द्धमान को आहार कराये तो कैसे कराये ? यह स्थिति उसकी चिन्ता और दुःख का और अधिक कारण बन गई। 'यादशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' अर्थात् जिसकी जैसी भावना होती है, उसकी कार्य-सिद्धि भी वैसी ही होती है । इस नीति के अनुसार संयोग से तीर्थंकर महावीर चन्दना के घर की ओर आ निकले। उसी समय सौभाग्य से चन्दना के पैरों की बेड़ियाँ टूट गयीं और वह तलघर से वाहर निकलकर द्वार पर आ खड़ी हुई। जैसे ही श्री वर्द्धमान उस द्वार पर आये कि चन्दना ने बड़े हर्ष और * 'सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं मार्जारी हंसवालं प्रणयपरवशा केकि कान्ता भुजंगम् । बैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जन्तवोऽन्ये त्यजन्ति मित्वा साम्यैकरूढ़ प्रशमितकलुष योगिनं क्षीणमोहम् ।।' -मानार्णव Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ति-भाव से उनसे आहार लेने की प्रार्थना (पड़गाहना) को । तीर्थंकर वहीं रुक गये, चन्दना ने नवधा भक्ति पूर्वक तीर्थंकर महावीर को आहार दिया। उस समय शुभ कार्य सम्पन्नता के सूचक रत्न-वर्षा आदि पाँच आश्चर्य हुए। चन्दना के सतीत्व की परीक्षा हुई, उसका महत्व जनता में प्रकट हुआ और वह बंधन-मुक्त हो गयी। ___चन्दना थी तो राजा चेटक की राजपुत्री, किन्तु वाग में झूलते समय एक विद्याधर द्वारा उसका अपहरण हुआ था, जव उसके चंगुल से छटी तो मंयोग से दुर्भाग्यवश उस सेठ के घर दामी के रूप में आ पड़ी। वह नवयुवती थी एवं अति सुन्दर थी, अत: सेठानी ने इस शंका से कि कहीं यह मेरे पति की प्रेम-पात्र न वन जाए, चन्दना को अपने मकान के तलघर में वेड़ियाँ पहनाकर रख दिया था और उसे रूखा-सूखा भोजन दिया करती थी। वह अभागी चन्दना मौभाग्य से तीर्थंकर महावीर का दर्शन कर सकी और उनको आहार कराने का पुण्य अवसर उसे मिला एवं उसकी दासता की बेड़ियाँ कट गयी, तव उसका सतीत्व सेठानी को भी ज्ञात हो गया; अत: सेठानी को वहुत पश्चात्ताप हुआ और उसने चन्दना से अज्ञान-वश हुए अपराधों की क्षमा माँगी। उपसर्ग निःसंग वाय जिस प्रकार भ्रमण करती रहती है, एक ही स्थान पर नहीं रुकी रहती, इसी प्रकार अमंग निर्ग्रन्थ तीर्थंकर महावीर तपश्चरण करने के लिए भ्रमण करते रहे। भ्रमण करते हुए जव वे उज्जयिनी नगरी के निकट पहुंचे तव वहां नगर के वाहर 'अतिमुक्तक" १ प्रन्यदा नगरे नम्मिनंव वीरम्नस्थिनः । प्रविष्टवानिरीक्ष्यामौ तं भक्त्या मुक्नशृङ्खना।।। --उनर पुगण ७५६. २. 'पडिगहमुच्चटाणं पादोदयमच्चणं च पणम च। मणवयण कायमुद्धी ऐमणमुद्धि य णमिदं पुण्णं ।। उज्जयिन्यामथान्येद्युस्तं श्मशानेतिमुक्तके । वर्धमानं महामत्त्वं प्रतिमायोगधारिणन् ।'-- --प्राचार्य गुणभट, उनर पुराण, ७४/३३१. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामक श्मसान को एकान्त-शान्त प्रदेश जानकर वहाँ आत्मध्यान • करने ठहर गये। जव रात्रि का समय हुआ तो वहाँ पर 'स्थाणु' नामक एक रुद्र आया। उस स्थाणु रुद्र ने ध्यान-मग्न तीर्थंकर महावीर को देखा। देखते ही उसने उन्हें ध्यान से विचलित करने के लिए घोर उपमर्ग करने का विचार किया। नदनसार अपने सिद्ध विद्यावल से अपना भयानक विकराल म्हप बनाया और कानों के पर्दे फाड़ देने वाला अट्टहास किया। अपने मुख में अग्नि-ज्वाला निकाल कर ध्यानारूढ़ तीर्थंकर महावीर की ओर झपटा। भूत-प्रेतों के भयानक नत्य दिखलाये । सर्प, सिंह, हाथी आदि के भयानक शब्द किये। ल, अग्निवर्षा की। इत्यादि अनेक उपद्रव तीर्थंकर को भयभीत करने तथा आत्मध्यान से चलायमान करने के लिए किए; परन्तु उसे कुछ भी सफलता न मिली । न तो परम तपस्वी वढेमान रंचमात्र भयभीत हए और न ही उनका चित्त ध्यान से चलायमान हुआ। वे उसी प्रकार अपने अचल आसन से ठहर रहे, जिस प्रकार भयानक आँधी के चलते रहने पर भी पर्वत ज्यों-का-त्यों खड़ा रहता है। अन्त में अपना घोर उपसर्ग विफल होते देख, स्थाण रुद्र चपचाप चला गया। . कंवल्य जगत् में कोई भी पदार्थ वहुमूल्य एवं आदरणीय वनता है तो वह वहुत परिश्रम तथा कष्ट सहन करने के पश्चात् ही वना करता है । गहरी खुदाई करने पर मिट्टी-पत्थरों में मिला हआ भा रत्न-पाषाण निकलता है, उसको छैनी, टाँकी, हथोड़ों की मार सहनी पड़ती है, शाण की तीक्ष्ण रगड़ खानी पड़ती है, तव कहीं झिलमिलाता हुआ वहुमूल्य रत्न प्रगट होता है। अग्नि के भारी सन्ताप में वार-बार पिघलकर सोना चमकीला बनता है, तभी संसार उसका आदर करता है और पूर्ण मूल्य देकर उत्कंठा मे खरीदता है। आत्मा अनन्त वैभव का पुंज है, उसके समान अमूल्य पदार्थ संसार में एक भी नहीं है। रत्न की तरह उसका वैभव भी अनादि Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालीन कर्म के मैल में छिपा हुआ है । उस गहन कर्म - मल में छिपे हुए वैभव को पूर्ण शुद्ध प्रकट करने के लिए महान् परिश्रम करना पड़ता है, और महान् कष्ट सहन करना पड़ता है, तव यह आत्मा परम शुद्ध विश्ववन्द्या परमात्मा वना करता है । तीर्थंकर महावीर को भी आत्मशुद्धि के लिए कठोर तपस्या करनी पड़ी । तपश्चरण करते हुए उनकी पूर्व संचित कर्मराशि निर्मार्ण (निर्जरा) हो रही थी, कर्म - आगमन ( आस्रव) तथा वन्ध कम होता जा रहा था अर्थात् आत्मा का कर्म-मल कटता जा रहा था या घटता जा रहा था । अतः आत्मा का प्रच्छन्न तंज क्रमशः उदीयमान हो रहा था, आत्मा कर्म - भार से हल्का हो रहा था, मक्ति निकट आनी जा रही थी । विहार करते-करते तपस्वी योगी, तोर्थंकर महावीर विहार ( मगध ) प्रान्तीय जृम्भिका गाँव के निकट बहने वाली 'ऋजकला' नदी के तट पर आये । वहां आकर उन्होंने साल वृक्ष के नीचे प्रतिमायोग धारण किया ।' स्वात्म चिन्तन में निमग्न हो जाने पर उन्हें सातिशय अप्रमत्तगुण स्थान प्राप्त हुआ । तदनन्तर चारित्र माहनीय कर्म की शेष २१ प्रकृतियों का क्षय करने के लिए क्षपक श्रेणी का आद्यस्थान आठवाँ गुण स्थान हुआ। तदर्थ प्रथम शुक्ल व्यान ( पथकत्व वितर्क विचार) हुआ । जैसे ऊंचे भवन पर शीघ्र चढ़ने के लिए सीढ़ी (निर्मनी) उपयोगी होती है, उसी प्रकार संसार - भ्रमण एवं कर्म-वन्धन के मल कारण दुर्द्धर्ष मोहनीय कर्म का शीघ्र क्षय करने के लिए क्षपक श्रेणी उपयोगी होती है । कर्म-क्षय के योग्य आत्म परिणामों का प्रतिक्षण असंख्यातगुणा उन्नत होना हो क्षपक श्रेणी है । क्षपक श्रेणी आठवें, नौवें, इसवें और वारहवें गुण स्थान में होती है । इन गुण-स्थानों में चारित्र्य १. २. 'ऋजुकुलायास्तीरे शाल द्रुमसंश्रिते शिलापट्टे । अपराह्न ने पष्ठनास्थि नम्य खलु नृभिकाग्राम' ।।' 'मालश्चने जिन्द्राणां दीक्षावृक्षाः प्रकीर्तिताः । एन एव बुधैर्ज्ञेयाः केवलोत्पत्तिशाखिनः ।' -- निर्वाण भक्तिः ११ -- प्रतिष्ठातिलक १० / ५. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ मोहनीय की शेष २१ प्रकृतियों की शक्ति का क्रमशः ह्रास होता जाता है, पूर्ण क्षय वारहवें गुण-स्थान म हो जाता है। उम ममय आत्मा के समस्त क्रोध, मान, काम, लोभ, माया, द्वेष आदि कषाय (कलषित विकृत भाव) समल नष्ट हो जाते हैं, आत्मा पूर्ण शद्ध वीतराग इच्छा-विहीन हो जाता है. तदनन्तर दूसरा शुक्ल ध्यान (एकत्व वितर्क) होता है जिससे ज्ञान-दर्शन के आवरक तथा बलहीन कारक (ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय) कर्म क्षय हो जाते हैं तब आत्मा में पूर्ण ज्ञान. पूर्ण दर्शन और पूर्ण बल का विकास हो जाता है। जिनको दूसरे शब्दों में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख,अनन्त वल कहते हैं। इन गणों के पूर्ण विकसित हो जाने से आत्मा पूर्ण ज्ञाता-इप्टा बन जाता है। यह आत्मा का १३ वाँ गण-स्थान कहलाता है। क्षपक श्रेणी के गुण-स्थानों का समय अन्तम हर्न है, उसी में योगी मर्वज हो जाता है। वीतराग सर्वत्र हो जाना ही आत्मा का जीवन-म क्त परमात्मा (अर्हन्त) हो जाना है । आत्मोन्नति या आत्मशुद्धि का इतना बड़ा कार्य होने में इतना थोड़ा समय लगता है; किन्तु यह महान कार्य होता तभी है जर्वाक आत्मा तपश्चरण के द्वारा शुक्ल ध्यान के योग्य वन च का हो। तेरहवें गण स्थान में तीसरा शक्ल घ्यान (सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती) होता है। आत्मोन्नति या आत्मशुद्धि अथवा वीतराग, सर्वज्ञ, अर्हन्त, जीवन्मुक्त परमात्मा बनने का यही विधि-विधान तीर्थंकर महावीर को भी करना पड़ा। १२ वर्ष ५ मास १५ दिवस तक* तपश्चर्या करने के अनन्तर उन्होंने प्रथम शक्ल ध्यान की योग्यता प्राप्त की, तत्पश्चात् पहिले लिखे अनुसार उन्होंने मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शना* 'गमय छदुमन्थनं बारमवामाणि पचमासेय । पण्णरसाणि दिणाणि य तिरयणसुद्धो महावीरी ।। -जयधवला. भाग १, पु. ८१. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरण और अन्तराय चार घातिया कर्मों का क्षय अन्तर्मुहूर्त में करके सर्वज्ञ वीतराग या अर्हन्त जीवन्मक्त परमात्मापद प्राप्त किया। अतः वे पूर्ण शुद्ध एवं त्रिकाल ज्ञाता त्रिलोकज्ञ बन गये । यह शुभ काल वैशाख शुक्ला दशमी के अपराह्न (तीसरे पहर का प्रारम्भ) का समय था। तीर्थंकर महावीर ने अपने पूर्व तीसरे भव में जिसके लिए तपस्या की थी और इस भव में जिस कार्य के लिए राजसुख एवं घर-परिवार का परित्याग किया था वह उत्तम कार्य सम्पन्न हो गया। यह जहाँ तीर्थकर महावीर का परम सौभाग्य था, वहीं समस्त जगत् का. विशेष करके भारत का भी महान् मौभाग्य था कि एक सत्य-ज्ञाता. सत्पथ प्रदर्शक एवं अनुपम प्रभावशाली वक्ता उसको प्राप्त हुआ। तीर्थकर महावीर 'तीर्थकर प्रकृति' के उदय का भी सुवर्ण अवसर आ गया। समवशरण इस विश्व-हितकारिणी घटना की शभ सूचना कुछ विशेष चिन्हों द्वारा सौधर्म इन्द्र को प्राप्त हुई। तीर्थंकर महावीर के सर्वज्ञाता-दष्टा अर्हन्त वन जाने की वार्ता जानकर इन्द्र को वहुत हर्ष हुआ। उसने तीर्थंकर महावीर का विश्वकल्याणकारी उपदेश सर्व-साधारण जनता तक पहुंचाने के लिए अपने कोषाध्यक्ष (खजांची) कुबेर को एक सुन्दर विशाल व्याख्यान-सभा-मण्डप (समवशरण) बनाने का आदेश दिया। कुबेर ने इन्द्र की आज्ञानुसार अपने दिव्य साधनों से अतिशीघ्र एक बहुत सुन्दर दर्शनीय विशाल सभा-मण्डप बनाया। जिसके तीन कोट और चार द्वार थे। द्वारों पर मून्दर मानस्तम्भ थे। बीच में * 'वैशाखमितदशम्यां हस्तोतर मध्यमाश्रिने चं। क्षपक श्रेण्यारूद स्योत्पन्नं केवलज्ञानम् ॥'--. --निर्वाण भक्ति : १२ शीलैण्यं सम्प्राप्तो निरुवनिःणेपानवा जीवः । कर्मग्जो विप्रमुक्ती गतयोगः केवली भवति ।। --गोम्मटमार, जीव काण्ड ६५. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँची तीन कटनी वाली सुन्दर वेदिका (गन्धकुटी) वनी थी। गन्धकुटी पर रत्न-जटित सुवर्ण सिहासन था जिसमें कमल का फल वना हुआ था। गन्धकुटी के चारों ओर १२ विशाल कक्ष (कमरे) थे, जिनमें देव, देवी, मनुष्य, स्त्री, साध, साध्वी, पशु, पक्षी आदि उपदेश सुनने वाले भद्र प्राणियों के बैठने की व्यवस्था थी। इसके सिवाय आगन्तुक जनता की मुविधा के लिए अन्य मनोहर स्थान और साधन उस समवशरण में बनाये गये थे। मध्यवर्तिनी उच्च गन्धकुटी के सिंहासन पर तीर्थंकर महावीर के विराजमान होने की व्यवस्था थी, जिससे उनका उपदेश समस्त श्रोताओं (मुननेवालों) को अच्छी तरह सुनाई पड़े। उसी समय देवों का दुन्दुभी वाजा वहाँ वजने लगा, जिसकी मधुर-आकर्षक ध्वनि वहुत दूर पहुँचती थी। उस ध्वनि को मुनकर तीर्थकर महावीर के समवशरण की वार्ता कानों-कान दूर तक फैल गयी। जिसमे तीर्थंकर महादीर का दिव्य उपदेश सुनने की उत्कण्टा से दूर-दूर की जनता चलकर ऋजुकला नदी के तट पर वने समवशरण में पहुंची। इन्द्र भी विशाल देव-परिवार के साथ समवशरण में पहँचा। उसने वहां तीर्थंकर के कैवल्य पद का महान् उत्सव किया, तीर्थंकर का दर्शन, वन्दना, पूजन बड़े भक्तिभाव और हर्ष के साथ किया। तदनन्तर समवशरण की मुव्यवस्था की। समवशरण में महान् प्रकाश था जिसमें वहां रात और दिन का भंद नहीं जान पड़ता था, वहाँ परम शान्ति थी। वहाँ आये हुए प्रत्येक प्राणी के हृदय में द्वेष, बैर, क्रोध, हिसा की भावना जाग्रत नहीं होती थो; अतः सिंह, गाय, चीता, हरिण, बिल्ली, चहा, सर्प, न्यौला * 'ऋषिकल्पजनितार्या ज्योतिर्वनभवनयुवतिभावनजाः । ज्योतिष्वकल्पदेवा ननिर्यची वमन्ति तेष्वनपूर्वम् ।।' -'समवशरण एक र्षिणिप्ट धर्मसभा है। 'ममवशरण' शब्द का अर्थ है समताभावी तीर्थकर भगवान् के चरण के शरण में जाना। तीर्थकरों के समवशरण में क्रम से श्रमण-ऋषिगण, स्वर्गवासी देवी, श्रमणा, ज्योतिषियों की देवी, व्यन्तर देवियां, स्वर्गवासी देव, मनप्य और तिर्यञ्च बेटते हैं। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि जाति-विरोधी जीव शान्त व निर्भय होकर साथ-साथ बैठते थे। ICE दिव्य उपदेश समवशरण में असंख्य भव्य जीव तीर्थंकर महावीर का दिव्य उपदेश सुनने के लिए बड़ी उत्कंठा और उत्साह के साथ आये और यथास्थान बैठकर तीर्थंकर की दिव्यवाणी की प्रतीक्षा करने लगे । चकोर पक्षी को चन्द्रिका (चांदनी) वहुत प्रिय लगती है, वह चांदनी रात्रि में चन्द्रमा की ओर अपलक दष्टि से देखा करता है, इसी तरह समवशरण की जनता तीर्थंकर महावीर के मुख की ओर देख रही थी। नोर्थकर का एक मख चारों ओर दिखायी दे रहा था। वर्षाऋतु के प्रारम्भ में चातक पक्षी अपनो ग्यास आकाश से वरसे हा जलविन्दुओं को अपने मुख में लेकर बझाता है. वह और कोई जल नही पीता, अतः वादलों की ओर अपनी चाच किये वर्षा की प्रतीक्षा करता रहता है, इसी तरह समस्त जनता के कान तीर्थकर का उपदेश सुनने के लिए आतुर थे। वहाँ अनेक मनष्यों, देवों तथा विद्वानों के हृदय में यह विचारधारा वह रही थी कि 'तीर्थंकर अव तक तो सर्वदा मौन रहे । तपस्या के दिनों में उन्होंने किसी से एक शब्द भी न कहा; परन्तु अब तो उनको जान हो गया है, अव उनके तीर्थंकर-प्रकृति का उदय होगा। पूर्ववर्ती अन्य तीर्थंकरों के समान उनका भी विश्व-उद्धारक, सर्वहितमय पावन उपदेश अवश्य होगा। । परन्तु सारा दिन बीत गया और रात्रि भी समाप्त हो गयी, नीर्थंकर के मुख से एक अक्षर भी प्रकट न हुआ। श्रोताओं ने समझा, . अभी कुछ विलम्व है। वहाँ अनेक व्यक्ति नये आये, अनेक पहिले * 'मारंगी सिंहशावं स्पति मुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं मार्जारी हंसबालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भजंगम बैराण्याजन्मजातान्यपि गलिनमदा जलवोऽन्ये त्यजन्ति श्रिन्या साम्य करुवं प्रशमिनकलपं यांगिनं क्षीणमाहम ।।' Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आये हुए उठकर चले गये, अनेक वहीं ठहरे रहे। दूसरा दिन हुआ, दूसरी रात हुई; किन्तु तीर्थंकर की वाणी प्रकट न हुई । इसी तरह कई दिवस व्यतीत हुए किन्तु तीर्थंकर का उपदेश वहाँ पर न हुआ। जनता का चित्त कुछ म्लान हो गया। कतिपय दिन पश्चात् तीर्थंकर का वहाँ से अन्य स्थान के लिए विहार भी हो गया। तीर्थंकर महावीर के आगे-आगे धर्मचक्र चलता था जिसको चमकती हुई कान्ति समझदारों के लिए भी क्षणभर द्वितोय सूर्य-विव की शंका उत्पन्न कर देती थी । महावीर तीर्थंकर के विहार करते ही कुबेर ने उस मनोज्ञ दिव्य समवशरण को स्वल्प समय में ही हटा लिया, वहाँ पर फिर पहिले जैसा साफ मैदान हो गया। विहार के अनन्तर तीर्थंकर जहाँ ठहरे, वहाँ कुबेर ने पहिले जेसा भव्य सभा-मंडप (समवशरण) थोड़े समय में ही बना दिया । वहाँ भी असंख्य श्रोता (उपदेश सुनने वाले) एकत्र हुए, परन्तु अनेक दिन-रात व्यतीत होने पर भी वहाँ भी उपदेश न हुआ। वहां से भी तीर्थंकर का विहार हो गया। वहाँ का समवरशरण विघट (विजित) गया, तीर्थंकर जहाँ पर ठहरे, वहाँ नवीन समवशरण वना। परन्तु अनेक दिन बीत जाने पर तीर्थकर का उपदेश वहाँ पर भी न हुआ । तीर्थंकर के इस मौन पर समस्त जनता चकित थी परन्तु मौन का कारण कोई न जान सका । सवकी धारणा यही थी, महावीर तीर्थकर हैं, मक केवली नहीं हैं, अतः उनका उपदेश तो अवश्य होगा, कब प्रारम्भ होगा, यह ज्ञात नहीं। विहार करते-करते तीर्थंकर राजगृही के निकट विपुलाचल पर्वत पर आये वहाँ भो सुन्दर विशाल समवशरण वना और यथा समय असंख्य श्रोता भी वहां एकत्र हए. परन्तु यहाँ भी तीर्थंकर महावीर मौन रहे । 'अग्रेसरं व्योमनि धर्मचक्रं तस्य स्फुरम्दामुररश्मि चक्रम् । द्वितीय तिरमनि विवर्णका क्षणं बुधानामपि कुर्वदासीत् ।' -प्रमग, वर्धमान चरित. १८/८६ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ महावीर तीर्थंकर के इस दीर्घकालीन मौन के मल कारण पर समवशरण के व्यवस्थापक सौधर्म इन्द्र ने गम्भीरता से विचार किया, तव अवविज्ञान से उसे ज्ञात हुआ कि समवशरण में अब तक ऐसा महान् प्रतिभाशाली विद्वान् उपस्थित नहीं हुआ जो कि तीर्थकर के गढ़, गम्भीर दिव्य उपदेश को सुनकर उसे अपने हृदय में धारण कर सके और उसको प्रकरणबद्ध करके श्रोताओं की जिज्ञासा का यथार्थ समाधान कर सके, तीर्थंकर का उपदेश सवको समझा सके । इस प्रकार का गणधर वनने योग्य विद्वान् मनि समवशरण में न होने के कारण तीर्थकर को वाणी मुखरित न हुई। तदनन्तर उसनं अवधिज्ञान से यह भी जाना कि इस समय इन्द्रभूति गौतम तीर्थंकर का गणधर वननं योग्य विद्वान् है, किन्तु वह तीर्थंकर का श्रद्धालु नहीं है, अतत्त्व-श्रद्धानी है। हाँ, यदि किसी प्रकार वह तीर्थंकर महावीर के सम्पर्क मे आ जावे तो तीर्थकर का श्रद्धालु भक्त बनकर गणधर वन सकता है। __ ऐसा विचार कर इन्द्र ने एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप बनाया और वह वेद-वेदांग के ज्ञाता, महान् प्रतिभाशाली विद्वान्, ५०० विद्वान् शिष्यों के गुरू इन्द्रभूति गौतम के पास पहुंचा और इन्द्रभूति गौतम मे बोला कि _ 'मेरे गुरु तीर्थंकर महावीर ने, जो कि सर्वज्ञ हैं. मुझे निम्नलिखित श्लोक सिखाया है, उसका अर्थ भी मुझे बताया था, किन्तु मैं भूल गया है। आप बहुत बड़े विद्वान् हैं कृपा करके उस श्लोक का अर्थ मुझे समझा दीजिये । श्लोक इस प्रकार है 'काल्यं द्रव्यवट्कं, नवपद सहितं, जीववट्काय लेश्याः । पंचान्ये चास्तिकाया, बतसमितिगति नचारित्रभेदाः ॥ इत्येतन्मोसमूलं त्रिभुवनमहितः प्रोक्तमहभिरीशः । प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यःसबै शुषदृष्टिः' Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभृति उस वृद्ध ब्राह्मण के मुख से श्लोक सुनकर विचार में 'पड़ गया कि छ: द्रव्य, नो पदार्थ, छह काय जीव, छह लेश्या, पाँच अम्तिकाय आदि का मैंने आज तक नाम भी नहीं सुना, वेद-वेदांग* का महान् जाता में हूँ परन्तु आर्हत दर्शन' का ज्ञान मुझे नहीं है, तव इमे ग्लोक की इन बातों को कैसे समझाऊँ ? किन्तु इसको अपनी अनभिज्ञता बतलाने में मेरा उपहासजनक अपमान है अतः इमकं गुरु के साय शास्त्रार्थ करके अपनी मान-मर्यादा रखना उचित है। एमा विचार कर इन्द्रभूति गौतम ने उस वृद्ध ब्राह्मण से कहा-'चल तेरे गुरु के माथ वात करूंगा' । कपट-रूप धारी 'इन्द्र' यही तो चाहता था, अतः वह मन-ही-मन अपनी मफलता जानकर वहुत प्रसन्न हुआ और गौतम को झटपट अपनं माथ समवशरण में ले आया। समवशरण के निकट पहुँचते ही जमे ही गौतम न मानस्तम्भ को देखा कि तत्काल उसके हृदय से ज्ञानमद स्वयं दूर हो गया और अभिमानी के वजाय वह नम्र विनयशील वन गया। ___ ममवशरण (धर्म-सभा) में प्रवेशकर जैसे ही उसने तीर्थकर महावीर का दर्शन किया कि तत्काल उसके हृदय में श्रद्धा जाग उठी । गौतम ब्राह्मण आया तो था वर्द्धमान महावीर से शास्त्रार्थ करने, किन्तु उनके निकट पहुंच कर वन गया उनका परम श्रद्धालु प्रमुख शिष्य । तीर्थकर महावीर की वीतरागता से वह इतना प्रभावित हुआ कि अपना समस्त परिग्रह त्यागकर वहीं महाव्रती दिगम्बर मुनि वन गया, मुनि वनते ही इन्द्रभूति ब्राह्मण को मनःपर्यय ज्ञान हो गया। इस घटना के होते ही तीर्थकर महावीर का मौन भंग हुआ और मेघगर्जना के समान दिव्य ध्वनि में उनका उपदेश प्रारम्भ हुआ। -धवला 1 खं, प. 65. 'गोतंण गोदयो विप्पो चाउव्वयसिंवि । णामेण वदिति सीलवं बम्हणुत्तमो॥ पम्नि कि नास्ति वा जीवस्तत्म्वरूपं निरूप्यताम् । इन्यप्राक्षमतो मायं भगवान् भक्तवत्सलः ।। -उत्तर पृ. 741360. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ तीर्थंकर के मौन भंग का यह शुभ दिवस श्रावण वदी प्रतिपदा था । इस तरह केवलज्ञान हो जाने पर ६६ दिन तक (वैशाख सुदी दशमी से ६ दिन वैशाख के, ३० दिन ज्येष्ठ और ३० आषाढ़ के ) तीर्थंकर का उपदेश नहीं हुआ। यह दिन 'बीर शासन उदय' के नाम से सिद्ध हुआ । जनता ने इसको वर्ष का प्रारम्भ दिन माना । तव से कई शताब्दी तक भारतीय जनता शुभ कार्य का प्रारम्भ इस दिन किया करती थी तथा वर्ष का प्रारम्भ भी श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन मानतो रही । 'सर्वार्द्धमागधीया भाषा मैत्री च सर्वजनता विषया' - ( नंदीश्वर भक्ति - ४२ । तीर्थंकर का उपदेश साधारण जनता की भाषा में होता था ।' प्रत्येक श्रोता उसे सुगमता से समझ लेता था । उस उपदेश में समस्त तात्त्विक बातों का विवेचन था, समस्त जगत् का विवरण था, इतिहास का कथन था, तथा आत्मा के हितकर आहतकर, संसार - भ्रमण, कर्म-वन्धन, कम-माचन, धर्म, अधम, गृहस्थ धर्म, मुनि धर्म, जीवपरिणमन, अजाव-परिणमन, की विशद व्याख्या थी । 'पशुओं को मारकर यज्ञ करना महान् पाप है, उस धर्म समझना भूल है -- इस विषय को ताथकर महावार नं अच्छे प्रभावशाली ढंग से समझाया । वीर-वाणी का प्रभाव विख्यात ब्राह्मण विद्वान् इन्द्रभूति जव तीर्थंकर महावीर का अग्रगण्य शिष्य वन गया, तब जनता पर तथा ब्राह्मण विद्वानों पर इसका क्रान्तिकारी प्रभाव पड़ा। इन्द्रभूति गौतम के समान ही उसके १ 'दिव्वज्मणीए गणिदाभावादी | तत्थापत्ती ? किमट्ठ मोहम्मदण चव ण, गणिदी किण्ण दीदी ? काललब्धीए विणा अमंजस्म देविदस्म तड्ढोयण सत्तीए प्रभावादी ।' -- जय धवला २ ' बालस्त्री मन्द मुर्खाणां नृणां चारिव्यकांक्षिणाम् । प्रतिबोधनाय तत्वशैः सिद्धान्तः प्राकृत: कृतः ॥' Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो अन्य महान् विद्वान् भ्राता अग्निभूति और वायुभूति भी आपनी शिप्य-मंडली सहित तीर्थंकर महावीर का उपदेश श्रवण करने समवशरण में आये और वे भी महावीर के विनीत शिष्य बनकर गणधर वन गये। जव तीर्थंकर महावीर का मर्मस्पर्शी उपदेश जनता ने सुना तो धर्म का सुन्दर सत्य स्वरूप उसे ज्ञात हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि पशु-यज्ञ के विरोध में एक व्यापक लहर फैल गई। यज्ञ कराने वाले पुरोहितों के तथा यज्ञ करने वाले यजमानों के हृदय में उल्लेखनीय परिवर्तन आया और वे पशु-यज के हिसक कृत्य से घृणा करने लगे। राजगही (मगधदेश) का नरेश श्रेणिक (विम्बसार), तीर्थंकर महावीर का उपदेश सुनकर उनका अनुयायी परम भक्त बन गया। इस तरह श्री वीर प्रभु की वाणी प्रारम्भ से ही अच्छी प्रभावशालिनी सिद्ध हुई। ___ कुछ दिनों पश्चात् तीर्थंकर महावीर वहाँ से विहार कर गये। वे जहाँ भी ठहरे, वहाँ उनका नवीन समवशरण* (धर्मसभा-मण्डप) वना। वहाँ पर भी उनका कई दिन प्रभावशाली धर्म-उपदेश हुआ, तदनन्तर वहाँ मे भी वे विहार कर गये । श्री महावीर तीर्थकर ने इच्छारहित होकर भी भव्यजनों के प्रति सहज दया से प्रेरित होकर अथवा उनके प्रवल पुण्ययोग से काशी, कश्मीर, कुरु, मगध, कोसल, कामरूप, कच्छ, कलिग, कुरुजांगल, किष्किन्धा, मल्लदेश, पांचाल, केरल, भद्र, चेदि, दशार्ण, वंग, अंग, आन्ध, उशीनर, मलय, विदर्भ, गौड़ आदि देशों में धर्म-प्रभावना की, देशनार्थ प्रवचन किया। एतावता अनेक प्रान्तों तथा देशों में तोर्यकर महावीर का मंगल विहार हुआ और महान् धर्म-प्रचार • 'पीसमायां ममम्येत्य श्रीवीरं जिननायकम । पूजयामास पूज्योऽयभस्तावीच्च पुनः पुनः ।।' -मन्त्र चुडामणि ११/१५ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ । उनकी भाषा दिव्य ध्वनिरूपिणी थी, जिसे सभी उपस्थित श्रोता समझते थे। जहाँ-जहाँ तीर्थंकर भगवान विहार करते थे वहाँवहाँ धर्मपीयूषपाथियों को उपदेश प्रदान करते थे ।* उस धर्म-प्रचार से अहिंसा का प्रभावशाली प्रसार हुआ, पशुयज्ञ होने सर्वत्र वन्द हो गये। हिंसा कृत्य और माँस-भक्षण से भी जनता घृणा करने लगी। हिंसक लोग तीर्थंकर महावीर का उपदेश मुनकर स्वयं अहिंसक बन गये । तीर्थंकर महावीर का जहाँ भी मंगलमय विहार हुआ, वहाँ के शासक, मंत्री, सेनापति, पुरोहित, विद्वान् तथा अन्य साधारणजन उनके अनुयायी भक्त बनते गये। जिस तरह सूर्य के उदय से अन्धकार हटता जाता है उसी तरह तीर्थंकर महावीर के उपदेश से अज्ञान, भ्रम, अधर्म, अन्याय, अत्याचार, हिसा-कृत्य आदि पापाचार साधारण जन क्षेत्र से दूर होता गया और निरपराध मूक पशु जगत् को संरक्षण मिला। 'इच्छाविरहितः सोऽपि भव्यपुण्यदयेरितः । विहारमकरोद् देशानार्यान् धर्मोपदेशयन् । काश्यां काश्मीरदेशे कुरुप च मगधे कौशले काममणे कच्छे काले कलिगे जनपदहिने जांगलान्ने कुरादी। किष्किन्धे मल्लदेणे मुकृतिजनमनस्तोपदे धर्मवृष्टिं कुर्वन् गाम्ना जिनेन्द्रो विहनि नियतं तं यजेऽहं विकालम् ।। पांचाले करने वाऽमनपदमिहिरोभद्र चदि दणाणं-- वंगांगान्ध्रोलिकोशीनर मलविदर्भेष गौडे मुमो शोनांग रश्मिजालादमृमिव मभां धर्मपीयूषधारा मिचन् योगाभिगमः परिणभयति च स्वान्तद्धिं जनानाम् ।।'-- --प्रतिष्ठापाठ ६/६१. 'गौतमोऽपि ततो राजन? गतः काश्मीरके पुनः । महावीरेण दीक्षां च घने जनमतेप्मिताम'।' -वैदिक ग्रन्थ श्रीमाल पुराण, प्र. ७३ (जैनतत्व-प्रकाण) (गौतम नामक एक ब्राह्मण ने तीर्थंकर महावीर मे जैनधर्म की दीक्षा लेकर इच्छित प्रथं को सिद्ध किया।) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर महावीर के संघ में ११ गणधर, ७०० केवली, ५०० मनःपर्यय ज्ञानी, १३०० अवधिज्ञानी, नौ सौ विक्रिया-ऋद्धिधारक, चार सौ अनुत्तरवादी, छत्तीस हजार साध्वी (श्रमणा), एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। तीर्थकर महावीर नं २९ वर्ष, ५ मास, २० दिन तक (ऋषि, मुनि, यति और अनगार) इन चार प्रकार के साधु संघ एवं श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्रविका महित देश-विदेश में महान् धर्म-प्रचार किया ।' अन्त में वे विहार वन्द करके पावानगर में अनेक सरोवरों के बीच उन्नत भूमि महामणि शिलातले ठहर गये । वहाँ उन्होंने छह दिन योग निरोध करके अन्तिम गुणस्थान प्राप्त किया और शेष अघाति कर्मों का क्षय करके कार्तिक वदी अमावस्या के ब्रह्ममुहूर्त में (सूर्योदय से कुछ पहिल) संसार के आवागमन से मुक्ति प्राप्त की। परिनिर्वाण-महोत्सव जव तीर्थंकर महावीर का पावापुरी में निर्वाण हुआ, तव उस रात्रि का अन्तिम अन्धकार था। जैसे ही विभिन्न आसारों से इन्द्र को तीर्थकर महावीर के मुक्ति-गमन की सूचना मिली, त्यो ही तत्काल देव-परिवार के साथ वह पावा नगर आया । वहाँ उसने असंख्य दीपक जलाकर महान् प्रकाश किया। आगन्तुक देवों ने उच्च मधुर स्वर से तीर्थकर का वार-वार जयघोष किया, जिससे पावानगर तथा निकटवर्ती स्त्री-पुरुषों को तीर्थकर के निर्वाण को सूचना मिल गई: अत: समस्त स्त्री-पुरुष दीपक जलाकर उस स्थान पर आये। इस तरह वहाँ असंख्य दीप प्रज्वलित हो गये । मनप्यों ने तथा देवों ने तीर्थकर के निर्वाण' १ 'वामाणणनीसं पंच य मामे य बीम दिवसे य। पउविह प्रणगारेहि य वारहदिहि (गणेहि) विहरिता॥' -ज. धव. बं. प. ८१. २ 'पावापुरस्य बहिरुनतभमिदेणे. पद्मोत्पलाकुलवतां मरमां हि मध्ये। श्री वर्धमान जिनदेव इति प्रतीतो, निर्वाणमाप भगवान् प्रविधूतपाप्मा। –निर्वाण भक्ति २५. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ का महान् उत्सव किया । हस्तिपाल राजा मल्लगण राज्य के नायक तथा १८ गण नायकों ने मध्यमा पावा में परिनिर्वाणोत्सव भक्तिपूर्वक मनाया । तदनन्तर देवों ने तीर्थंकर का शरीर कपूर, चन्दन की चिता के ऊपर रक्खा। अग्निकुमार देवों ने जैसे ही नमस्कार किया कि उनके मुकुट से अग्निज्वाला प्रकट हो गयी, उससे सुगन्धित द्रव्यों के साथ तीर्थंकर का परम औदारिक शरीर भस्म हो गया । उस भस्म को सवने अपने-अपने मस्तक से लगाया । उसी दिन गौतम गणधर को केवल ज्ञान का उदय हुआ । तव से समस्त भारत में तीर्थंकर महावीर के स्मरण में प्रतिवर्ष कार्तिक वदी अमावस्या को स्मारक रूप में 'दीपावली महापर्वराज' प्रचलित हुआ, यह दिवस जैनों में बहुत शुभ माना गया है। इस दिन तीर्थंकर महावीर की पूजन होती है, परिनिर्वाण -पूजा होती है, और केवलज्ञान लक्ष्मी की पूजा भी होती है तथा रात्रि के समय दीपक जलाकर हर्षसूचक प्रकाश किया जाता है । * 'तीर्थंकर महावीर भव्य जीवों को उपदेश देते हुए मध्यमा पावा नगरी में पधारे, और वहां के एक मनोहर उद्यान में चतुर्थ काल में तीन वर्ष, माढ़े आठ मास वाकी रह जाने पर कार्तिक अमावस्या के प्रभातकालीन संध्या के समय योग का निरोध करके कर्मों का नाश करके मुक्ति को प्राप्त हुए । चारों प्रकार के देवताओं ने आकर उनकी पजा की और दीपक जलाये । उस समय उन दीपकों के प्रकाश में पावानगरी का आकाश प्रदीपित हो रहा था । उसी समय मे भक्तलोग जिनेश्वर की पूजा करने के लिए भारतवर्ष में पावापुर वरद वहिर्भुविनमिन विननवनके पावन वनके जिनेन्द्र श्रीवीरं मारविजयि मुनिमरामा । विजयंगेयदं ॥।' -- प्राचष्ण कवि, वर्धमानपुराण, १६।६६ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० प्रतिवर्ष उनके परिनिर्वाण-दिवस के उपलक्ष्य में दीपावली पर्व मनाते हैं। श्री वीर प्रभु के निर्वाण के स्मारक रूप वीर निर्वाण संवत् प्रारम्भ हुआ है, जो कि प्रचलित सभी संवतों से प्राचीन (२५००) है। महावीर के नाम पर नगर तीर्थंकर महावीर की स्मृति में बंगाल-विहार के अनेक नगरों नाम तीर्थंकर के नामानरूप रक्खे गये । तीर्थंकर के जन्म नाम 'वर्द्धमान' पर (वर्दमान), 'वीर' नाम पर 'वीर भूमि' (वीरभूम) तीर्थंकर के चरण चिह्न और ध्वज चिह्न सिह' से 'सिंह भूमि' [ सिंहभूम] ["सिंहोहतां ध्वजाः-इति हेमचन्द्रः] नगर का नाम अब तक प्रचलित है। तीर्थकर महावीर और महात्मा बुद्ध तीर्थकर महावीर के समय में अन्य कई धर्म-प्रचारक हुए हैं, उनमें कपिलवस्तु के क्षत्रिय राजा शुद्धोधन के पुत्र गौतमबुद्ध अधिक विख्यात हैं । राजकुमार गौतम ने तरुण अवस्था में संसार से विरक्त होकर सव से पहले तीर्थकर महावीर के पूर्ववतो २३ वें तीर्थंकर पाश्वनाथ की १. "जिनेन्द्रवीरोऽपि विबाध्य संततं ममततो भव्यममहमति । प्रपच पावानगरी गरीयमी मनाहगंधानवने तीयके । चतुषंकालेर्धचतुर्षमासकः विहीनताविश्चतुरद्वशंपर्क सकातिके स्वातिष कृष्णभतमुप्रभानमन्ध्याममये म्वभावतः ।। पपातिकर्माणि निण्डयोगको विधय घाती धनद्विबंधन विबन्धनस्थानमवाय शंकरी निरन्तरायोरमुखानुबन्धनम् ।। ज्वलनदीपालिकया प्रवद्धया मुगमुः दीपितया प्रदीप्तया तदास्म पावानगरी समंततः प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ।। ततस्तु लोक: प्रतिवर्षमादरात् प्रमिटीपालिकयात्र भारत समुचतः पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेन्द्रनिर्वाणविभूति भक्तिभाक् ।।' -हरिवंश पुराण, सगं ६६ २. सिहों लांछनान्यहंता क्रमात् ।'-प्रतिष्ठातिलक ११।३, लांछन स्थापन, Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य-परम्परा के जैन साधु पिहितास्रव' से साधु दीक्षा ली। जैन शास्त्रों के अनुसार समस्त वस्त्र त्यागकर वे नग्न हुए और केशलोंच तथा हाथों में भोजन करना आदि जैन साधु का आचरण कुछ दिन तक करते रहे । जव उन्हें जैन साधु की चर्या कठिन प्रतीत हुई, तव उन्होंने गेरुए वस्त्र पहिनकर अपना अलग पन्थ चलाया जिसका नाम मध्यम मार्ग पड़ा। ____-हे सारिपुत्र, मेरे तप की ये त्रियाएँ थीं-मैं निर्वस्त्र रहा, मैंने लोकाचार को त्याग दिया. मैंने हाथों में भोजन लिया, अपने लिय लाया हुआ भोजन नहीं किया. अपने निमित्त से बना भोजन नहीं किया, भोजन का निमन्त्रण स्वीकार नहीं किया, थाली में भोजन नहीं किया, मकान की ड्योढ़ी (विद इन ए ऐशहोल्ड) में भोजन नहीं किया, खिड़की से नहीं लिया, मसल से कटने के स्थान पर भोजन नहीं लिया, न गभिणी स्त्री से लिया, न वच्चे को दूध पिलाने वाली से लिया, न भोग करने वाली से लिया, न वहाँ से लिया जहां कृत्ता पास खड़ा था, न वहाँ से लिया जहाँ मक्खियों भिन-भिना रही थीं, न मछली, न मांस, न मदिरा, न सड़ा मांस खाया, न तुम का मैला पानी पिया । मैंने एक घर से भोजन लिया, एक ग्रास भोजन लिया या मैन दो घर से भोजन लिया, दो ग्राम भोजन लिया। मैने कभी दिन में एक वार भोजन किया, कभी पन्द्रह दिन में भोजन किया। मैंने मम्तक, दाढ़ी व मठों के केशलोंच किये । उस केशलोच की क्रिया को चाल रखा। में एक बद पानी पर भी दयाल रहता था। क्षुद्र जीव की हिमा भी मरे द्वारा न हो ऐसा में सावधान था । मिग्पिामणाहनिन्थ मग्यतीरे पलामणयग्यो । पिहिनामवग्म मिम्मी महामुद्रो बुकिनमणी ।।' --दर्णनमार ६ "तवास्म में इदं सारिपुन, तपम्मिताय हानि, प्रचलको होमि, मनाचार्ग हन्यापलबनो, न एहिभन्तिको नतिभवन्तिको, नाभिहिनं न उदिधम्मकतं न निमन्तनं मादयामि, मांत कुम्भिमनपग्रिगण्हामि, न एलकमन्तरं, न दाइमन्न, न ममलमंतर, न द्विग्नं भजमानानं, न गभनिया, न पापमानाय, न पुग्मिन्नग्गताय, न मंकितांमु. न यन्थ मा उपट्टिता होति, न यत्थ म उपट्टिता हानि, य यन्य भक्मिका मण्डमण्डचाग्निी, न मन्दं न मांस, न मुरं, न भरेयं, न मोदकं पिवामि, मो कागरिको वा हामि एकालापिको, दागारिको वा होमि दालोपिको....................... 'मनार्गारको वा हामि मनालामिको किम्मापि Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ दनिया यापिमि, हीहिपि दनीहि यायोमि.. मतहि पिदत्तीहि यामि एकाहिक पाहारं पाहारमि, द्वीहिकं पि पाहारं पाहारेमि... पं..."मताहिकं पाहारं पाहारेमि, इनि एवम् प्रडमामि पि प्राहा पाहामि इति एवरूपं अद्धमासिकं पि पग्यिायमनं भोजनानुयोग मनुयुत्तो विहम । केममम्मुलोचको पिहोमि, केममम्मुलोचनानुयोग मनुपुन्तो, याव उदक विन्दुन्हि पि में दया पन्चुट्टिना होनि-माहं खुद के पाणे विममगते मंघानं प्रापटेमि ति। "मो नना मी मिन्नो चेब, एको मिमनके बेन । नमो न चरिंगमामीनो, एमनापमुनो मनीति ।।" -मुत्तपिटके मन्त्रिमनिकाय, महामोहनादमृत, पृ. १०५. "मिटा महानाम ममयं गजगह विहरामि गिज्यकटे-पन्दने ! तेन खोपन मम येन मंबहला निगण्ठा इमिगिलियम्म कालमिलायं भन्थका हौनि प्रामन पगिक्विना, प्रोपवामिका दक्दानिप्पा कटका वेदना वदति। अथ खाई महानाम मायण्ह ममपं पटिमल्लाण कड़ितो येन मिगिल पम्मय काण मिला ग्रेन ने निग्गठा नेन उप मंक. मिमम उप मंकमिता ने निरगटे नदवीचम । किन्ह तुम्हें प्रावमा निरगंटा उभट्टका प्रामनपरिणिस्ता, प्रविमिका दुक्खा निप्पा कटका बेदना वेदिय याति-7वं बनेमहानाम ने निरगंठा में नदवीचं. निरगठी पाब मा नापना मव्वण मण्वदस्मावी अपग्नेिम शानदम्मन पग्जिानानि चरतो च निट्टना च मनम्य च मनतं ममितं ज्ञानदस्मनं पक्युपट्टितनि, मो एवं प्राह अन्थियो वा निगगंटा पूर्व पापं कम्मं कनं. २ इमाय कटकाय दुवकांग्कारिकाय निग्जेग्य यं पतन्य एग्हि कायेन मंवना, वाचाय भवना; मनमा संवता, नं पानि पागम्म कम्मम्म प्रकरणं, नि पुगणानं कम्मानं तपमा कतिभाभा, नवानं प्रकारण पायति अनबन्यवा, पार्यान अनवम्मवा कम्ममन्खपो, कम्मवखपा दुक्खवखयो, दुक्खक्पा बंदनाबाना यंदनाममा मन दुग्वं निग्जिण्णं भविम्मनि। न च पन प्रम्हाकं कच्चनि बंब समति च मन न अग्हा पनि मनाति ।" --बौद्ध ग्रन्थ मजित मनिकाय, पृ. १९२-६३. (महामा बुद्ध कहते है कि). है महानाम ! मैं एक ममय गजगह के गहकुट पर्वत पर घम रहा था. तब ऋपिगिरि के मीप कालशिला पर बहुन में निम्रन्थ (जैनमाधु) प्रामन छोड़कर उपनाम कर रहे , और ताइ नपस्या में लगे हुए थे। मैं मायंकाल उनके पाम गया और उनमें बोला, 'भो निम्रन्या ! नुम प्रामन छोड़कर उपक्रम कर मी कठिन तपस्या की बंदना का अनभव क्यों कर रहे हो? जब मैंन उनमें जमा कहा नब माध हम तरह बोले कि निग्रंथ ज्ञानपुत्र भगवान महाबीर मवंज़ पोर मवंदणी है, वे मब कुछ जानते हैं और देखते हैं। चलने. ठहरने, माने. जागनं मब हालतों में मदा उनका सनदर्शन उपस्थित रहता है। उन्होंने कहा है कि निग्रंन्यो ! तुमनं पहिले पाप कर्म किये है उनकी इम कटिन तपस्या से निजंग कर डाला। मन, वचन काय को गेंकन में पाप नहीं बंधता और तप करने से पुराने पाप मव दूर हो जाते हैं। हम नग्ह नये पापों के न होने से कर्मों का भय होता है. कमों के क्षय से दुःखों का तय होता है, दुःखों के नाण में बंदना नष्ट होती है और वंदना के नाश में मब दुःख दूर हो जाते हैं (तब बुद्ध कहते है) 'यह बात मने अच्छी लगती है और मैंने मन को टोक माल्म होती है।") Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर महावीर और महात्मा बुद्ध वास्तव में तीर्थंकर महावीर और महात्मा बुद्ध समदेश, समकाल, एवं सम संस्कृति के दो क्षत्रिय राजकुमार हुए, जिन्होंने आत्मधर्म और लोकधर्म का २५०० वर्ष पूर्व प्रसार किया। ___इन दोनों आत्माओं के जीवन, सिद्धान्त, धर्म आदि का अध्ययन करने में निम्नलिखित तुलनात्मक तथ्य-तालिका वहुत उपयोगी सिद्ध होगी आत्मधर्म प्रकाशक महावीर लोकधर्म-प्रचारक बुद्ध १. नाम वर्द्धमान बुद्ध २. पिता मिद्धार्थ शुद्धोधन ३. माता त्रिशला महामाया ४. गोत्र कश्यप ग्राम कुण्डग्राम (वैशाली) कपिलवस्तु (लुम्बिनी) ६. वंश जात शाक्य ७. जाति क्षत्रिय क्षत्रिय ८. जन्म ई. पू. ५८२ ९. धर्म अर्हन्त १०. ज्ञान-प्राप्ति-स्थान ऋजुकलातट गया ११. निर्वाण ई. पू. ५२७ १२. निर्वाण-स्थान पावापुरी कुशीनार १३. आयुष्य ७० वर्ष ८० वर्ष १४. व्रत पंच महाव्रत पंचशील १५. मिद्धान्त स्याद्वाद क्षणिकवाद कश्यप आहेत* महान्मा बुद्ध ने कहा था-भिक्षुनो ! मन एक प्राचीन गह देखी है, एकमा प्राचीन मार्ग जो कि प्राचीनकाल के अगहनी द्वारा प्राचरण किया गया था। मैं उमी पर चला और चलते हुए. मुझे कई नलों का रहम्य मिला। भिक्षुग्री,प्राचीनकाल में जो भी प्रहन्न नथा बुद्ध हुए थे उनके भी मे ही दो मुख्य अनुयायी थे, जैम मेरे अनुयायी मारिगुत्र मागलायन थे।' (मंयु, १६८) "जैन साधना जहां एक ओर बोटमाधना का उद्गम है, वहाँ दूसरी ओर वह णवमार्ग का भी प्रादित्रोत है।"--संस्कृति के चार प्रध्याय, गमधार्गमिह 'दिनकर'; 2. ४३८. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-निर्वाण संवत् भगवान महावीर का निर्वाण कव हुआ, इस संबंध में जैनों में गणना की एक अभेद्य परम्परा विद्यमान है और वह श्वेताम्बरों तथा दिगम्बरों में समान ही है। "तित्थोगालोपयन्ना में निर्वाण काल का उल्लेख करते हुए लिखा है 'श्यांग सिद्धिगओ, अरहा तित्थंकरो महावीरो । तं श्यणिभवंतीए, अभिसित्तो पालो शया ॥२०॥ पालग रणो सट्ठी, पुण पण्णसयं वियाणि गंदाणम् । मुरियाणं सद्विसयं, पणतीसा पूस मित्ताणं (त्तस्स) ॥२१॥ बलमित-माणुमित्ता, सट्टा चत्ताय हॉति नहसेणे । गद्दभसयमेगं पुण, परिवन्नो तो सगो राया ॥२२॥ पंचम भासा पंच य, वासा छच्चेव होंति वासस्था । परिनिम्ब अस्सऽरिहतो, तो उत्पन्नो (पश्विनो) रुगोराया ॥६२३॥' (जिम गत में अर्हन् महावीर तीर्थंकर का निर्वाण हुआ, उसी रात (दिन) में अवन्ति में पालक का राज्याभिषेक हुआ। ६० वर्ष पालक के.. १५० नन्दों के, १६० मार्यों के, ३५ पुष्यमित्र के, ६० वमित्र-भानमित्र के, ४० नभ:सेन के और १०० वर्ष गर्दः भिल्लों के बीतने पर शक राजा का शासन हुआ। अर्हन् महावीर को निर्वाण हुए ६०५ वर्प और ५ मास बीतने पर गक राजा उत्पन्न हुआ।) यही गणना अन्य जैन-ग्रन्थों में भी मिलती है। हम उनमें से कुछ नीचे दे रहे हैं (१) श्री बीर नितेवर्षः षभिः पंचोत्तरः शतः । शाक संवत्सरस्यषा प्रवृत्तिभरतेऽभवत् ॥ -मेरुतंगाचार्य रचित 'विचार-श्रेणी' (जैन साहित्य मंशोधक, खण्ड २. अंक ३-४ पृ. ४) (२) हि वासाण एहि पंचहि वासेहि पंच मासेहि । मणिबाग गयत्स उपाज्जिस्सह सगो राया ॥ नेमिचन्द्र रचित 'महावीर चरिय' श्लोक २१६९, पत्र ९४-१। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ ६०५ वर्ष ५ मासा कायही अंतर दिगम्बरों में भी मान्य है । हम यहाँ तत्संबंधी कुछ प्रमाण दे रहे है (१) पणहस्सयवस्सं पणभासजुवं गोमय वीरणिन्बुइदो । सगराजोतो काकी चदुणव तिमहिय सगमासम् ॥५०॥ -नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती रचित 'त्रिलोकसार' (२) वर्वाणां षट्शाती त्यक्तवा पंचानां मास पंचकम् । मुक्तिगते महावीरे शकराजस्सतोऽभवत् ॥६०-५४९॥ ___-जिनसेनाचार्य रचित 'हरिवंशपुराण'। (३) णिव्वाणे वीरजिणे छव्यास सदेसु पंचविरिसेसु । पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिो अहवा ॥ -तिलोयपण्णत्ति.' भाग १ पृष्ठ ३४९॥ (४) पंच य मासा पंच य वाला छच्चेव होंति वारुतया । सगकालेण च सहिया थावेपथ्यो वदो रासी ॥ -धवला (जैन सि. भवन आग), पत्र ५३७ वर्तमान ईस्वी सन् १९७३ में शक संवत् १८९४ है। इस प्रकार ईस्वी सन् और शक संवत्सर में ७९ वर्ष का अन्तर हुआ । भगवान महावीर का निर्वाण शक संवत् मे ६०५ वर्ष ५ मास पूर्व हुआ। इस प्रकार ६०६ में से ७९ घटा देने पर महावीर का निर्वाण ईसवी पूर्व ५२७ में सिद्ध होता है। केवल शक संवत् से ही नहीं, विक्रम संवत् से भी महावीर निर्वाण का अन्तर जैन साहित्य में वर्णित है। 'तपागच्छ पट्टावाल' में पाट आता है "जं रणि कालगओ, अरिहा तित्थंकरो महावीरो । तं रणि अवणिवई, महिसित्तो पालो राया ॥१॥ पट्टी पालयरण्णो ६०, पणवण्णसयं तु होइ नंदाणं ।१५५ अट्ठसयं मुरिमाणं १०८, तीसच्चिय पूसमित्तस्स ३० ॥२॥ बलभित्त माणुमित्त सट्ठी ६०, परिसाणी चत्तनहवाणे ४०० तह गभिल्लरज्वं तेरस १३ वरिस सगस्स चवरिसा ॥३॥'श्री विक्रमादित्यश्च प्रतिबोषितस्तवाज्यं तु भी वीर सप्ततिः चतुष्टये ४७० संजातं ।" Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ [६० वर्ष पालक राजा, १५५ वर्ष नवनन्द, १०८ वर्ष मौर्य वंश , ३० वर्ष पुष्यमित्र, वलमित्र भानुमित्र ६०, नहपान ४० वर्ष । गर्दभिल्ल १३ वर्ष, शक ४ वर्ष कुल मिलाकर ४७० वर्ष (उन्होंने विक्रमादित्य गजा को प्रतिबोधित किया) जिसका राज्य वीर निर्वाण के ४७० वर्ष वाद हुआ । 'तीर्थकर महावीर' विजयेन्द्रसूरि, प.० ३१९ ईसापूर्व ५२७ वर्ष भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् दिगम्वर आम्नायानुसार केवली, श्रुतकेवली और दशपूर्वधरों की सूची (1) केवली१. गोतम गणधर १२ वर्ष मुधर्मा १२ वर्ष जम्बृम्वामी ३८ वर्ष श्रुत केवली-५ विष्णनन्दी १४ वर्ष नन्दिमित्र १६ वर्ष अपगजित वर्ष गोवर्धन १९ वर्ष २९ वर्ष भद्रबाह १६२ वर्ष दिगम्बर आम्नाय के अनुसार १६२ वर्ष पश्चात् श्रुतकेवली का लोप माना गया है-(ई. पू. ३६५) कादशगणधग:-- 'एन्द्रभूतिनिनिर्वायुभतिः मुधर्मकः । मौयमोऽयौ पुत्रमित्रावकम्पनमुनामधृक् ।। अन्धनः प्रभामश्च संख्यान् मनीन यजे। गौतमं च मुधर्म च जम्बम्वामिनमध्वंगम् ।। ध्रुनकेलिनान्यांश्च विष्णुनन्यपराजितान। गोवर्धनं भद्रबाहुं दापूर्वधरं यजे ।' -प्राचार्य जयसेन प्रतिष्ठापाठ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ १० वर्ष १९ वर्ष १७ वर्ष २२ वर्ष ५. शपूर्वधर-11 विशाखाचार्य प्रोष्ठिल क्षत्रिय जयसेन नागसेन सिद्धार्थ धृतिषण विजय बुद्धिवल्ल गंगदेव धर्मसेन १८ वर्ष १७ वर्ष १८ वर्ष १३ वर्ष २० वर्ष १४ वर्ष १०. ११. १६ वर्ष १८४ वर्ष - - - - "चन्द्रगुप्तमुनिः शीघ्रं प्रथगो द.शपूविणाम् मर्वसंघाधिपो जाता विशाखाचार्यसंशकः ।।' हरिषेण चिन, कथाकोप 39. दशपूर्वधरों में प्रथम चन्द्रगुप्त-मुनि शीघ्र ही विशाखाचायं नाम से सर्वमंघ के अधिपति हः । "विशाखप्रोप्टिल क्षत्रीयजय नाग पुरम्मरान् । मिद्धार्थधुनिषेणाही विजयं बुद्धिबलं तथा।। गंगदेवं धर्मसेनमेकादश तु मुश्रुनान् ।' Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ एकादशांगषारी आचार्य नक्षत्र आचार्य जसपाल (जयपाल) आचार्य पाण्डु आचार्य ध्रुवमेन कंसाचार्य २२० वर्ष आचारांगधारी आचार्य मुभद्र आचार्य यशोभद्र आचर्य यशोबाहु आचार्य लोहाचार्य । ११८ वर्ष ४. - सम्पूर्ण वर्ष योग ६८४ वर्ष २. प्रभावक आचार्यआचार्य गुणवर (कषायपाहुड)-विक्रम सं. १६. आचार्य कुन्दकुन्द (समयमार)-विक्रम सं. ३२. आचार्य उमास्वामी (तत्त्वार्थमूत्र)-विक्रम सं. १५० आचार्य ममन्त भद्र (रत्नकरण्ड)-(विक्रम सं. तीसरी शती) आचार्य सिद्धमन (सन्मतिसूत्र)-(विक्रम मं. पांचवीं शती) 'नक्षवं जयपालाव्यं पाण्डुच ध्रुवमेनकम् । कंसाचार्य पुरोकगीय जातारं प्रयजेऽन्वहम्।। मुभदंच यशोभद्रं यशोबाहुं मनीश्वरम् । लोहाचार्य पुरा पूर्वज्ञानचक्रधरं नुमः ॥' Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त जीव और अजीव : अनन्तानन्त इस जगत् में अनन्तानन्त चेतन पदार्थ (जीव) हैं और अनन्तानन्त जड़ (अजीव) पदार्थ हैं, उनमें से प्रत्येक पदार्थ अनन्त गुणों (शक्तियों) तथा अनंत विशेषताओं का पुंज है । सूक्ष्म परमाणु (एटग) में भी अनंत शक्तियाँ निहित हैं। परमाणु की शक्ति से विशाल नगरों का विध्वंस क्षण-भर में किया जा सकता है और विशाल परिमाण में विद्युत् (विजली) उत्पन्न करने वाले विजलीघर का संचालन किया जा सकता है, भीमकाय जल-यान (पानी के जहाज, पनडुब्बी, नाव आदि) परमाण की शक्ति से चलाये जा सकते हैं । एक परमाणु में जब इस प्रकार की विध्वंस, निर्माण, संचालन, प्रेरण-रूप असीम शक्तियाँ तथा विशेषताएँ सिद्ध होती हैं, तब अन्य विशाल जड़-चेतन पदार्थों के गुणों और विशेषताओं का भी इससे अनुमान लगाया जा सकता है। अग्नि लकड़ी को जलाकर भस्म करती है, सोने के गलाकर शुद्ध करती है, रोटी को पकाती है, दाल को गलाती है, जल को भाप बनाती है, अशुद्ध धातु-पात्रों को शुद्ध करती है, शीत को दूर करती है, प्रकाश प्रदान करतो है, इत्यादि अनन्त प्रकार की विशेषताएँ अग्नि में विद्यमान है। ऐमी ही अनन्त शक्तियां, गुण या विशेषताएं जल, वायु तथा पार्थिव पदार्थों में विद्यमान हैं। ये भौतिक (पाथिव, जलीय, आग्नेय, वायव्य) पदार्थ उन परमाणुओं के सम्बद्ध समुदाय से बना करते हैं, जिनकी शक्ति परमाणु-वम, परमाणु-विजलीघर आदि के रूप में पहले वतलाई जा चुकी है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमूर्तिक जड़ पदार्थ पौगलिक (मटीरियल) जड़ पदार्थों के सिवाय अमूर्तिक (नॉनमटीरियल) जड़ पदार्थ और भी हैं, जिनको धर्म (ईथर) (क्रियाशील अनन्त पदार्थों की हलन-चलन रूप क्रिया में सहायक), अधर्म (स्थितिशील अनन्न पदार्थों की स्थिति में सहायक), आकाश (समस्त पदार्थों के लिए स्थान-दाता), काल (समस्त अनन्त पदार्थों के प्रतिक्षणवर्ती परिणमन में सहायक) नाम से कहा जाता है। उन अमूर्तिक जड़ पदार्थों में में प्रत्येक में भी परमाणु या भौतिक पदार्थों के समान अनन्त शक्तियाँ विद्यमान हैं, जिममे कि इस जगत् का ढाँचा सूक्ष्म रूप मे विविध परिणमन कर रहा है। म्थूल दृष्टि से विचार-शक्ति भले ही महसा उसे न जान सके, किन्तु मूक्ष्म विचार से तो उनको जाना ही जाता है । चेतन पदार्थ को अनन्तानन्तता जड़ पदार्थों के समान चेतन पदार्थ (जीव) भी संख्या में अनन्तानन्त हैं और प्रत्येक चेतन पदार्थ भी, वह चाहे छोटा प्रतीत हो या बड़ा, अनन्त शक्तियों का पुंज है । ज्ञान-दर्शन, सुख, वल, श्रद्धा, समता, क्षमता, मदुता आदि अनन्त प्रकार क गुण या शक्तियां तथा विशेषताएं प्रत्येक जीव में विद्यमान (मौजूद) है। अर्थात् जगत् का कोई भी पदार्थ क्यों न हो वह अनन्त गुणात्मक है। उन अनन्त गुणों का परिणमन भिन्न-भिन्न निमित्तों से विभिन्न प्रकार का हुआ करता है। उन विभिन्न विशेषताओं को जव विभिन्न दृष्टिकोणों (अपेक्षाओं) से जाना जाता है तव प्रत्येक पदार्थ अनेक रूप में प्रतीत होता है। ___ जल किसी प्यासे मनुष्य की प्यास बुझाकर उसे जीवन देता है और किसी प्यासे (हैजे के रोगी) को प्यास बुझाकर मार देता है, स्नान के रूप में स्वस्थ मनुष्य को जल स्फति और आनन्द प्रदान करता है; दाह ज्वर वाले मनुष्य को वही जल-स्नान सन्निपात लाकर मृत्यु Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के निकट पहुँचा देता है। इस तरह जल जीवन-दाता अमृत-रूप भी है, और मारक विष-रूप भी है। दूष शरीर के लिए सर्वोत्तम पोषक पदार्थ है, तत्काल के उत्पन्न वालक, शिशु का जीवन तो दूध पर ही निर्भर है । किशोर, यौवन, प्रौढ़, वृद्ध अवस्थाओं में भी दूध शरीर का अच्छा पोषण करता है, इसी कारण दूध को अमृत भी कहा जाता है; परन्तु यही दुध यदि अतिसार (दस्त) के रोगी को दिया जाए तो उसके लिए विष जैसा हानिकारक सिद्ध होगा। ऐसे ही विभिन्न दृष्टिकोणों से विभिन्न प्रकार की प्रतीत होने वाली अनेक प्रकार की विशेषताएँ प्रत्येक पदार्थ में एक साथ होती हैं, जैसे-राम राजा दशरथ के पुत्र थे, किन्तु लवणांकुश (लव-कुश) के पिता थे, लक्ष्मण के भाई थे, सीता के पति थे, जनक के जामाता (दामाद) ये, भामण्डल के वहनोई थे। इस तरह एक ही राम पुत्र, पिता, भाई, पति, दामाद, बहनोई आदि अनेक रूप थे । इसी प्रकार प्रायः अन्य प्रत्येक मनुप्य भी पिता, पुत्र, वावा, पोता, पति, पुत्र, श्वसुर, जमाई, साला, बहनोई आदि अनेक सम्बन्धोंका समुदाय होता है। ___ इन अनेक प्रकार की विशेषताओं के कारण ही प्रत्येक पदार्थ अनेकान्त (अनेके अन्ताः धर्माः यस्मिन् स अनेकान्तः) रूप में पाया जाता है, जो (धर्म) विशेषताएं परस्पर-विरुद्ध प्रतीत होती हैं (जैसे जो पुत्र है, वह पिता कैसे हो सकता है, जो साला है, वह वहनोई कैसे हो सकता है, जो पति है, वह पुत्र कैसे हो सकता है इत्यादि) वे ही विशेषताएं एक ही पदार्थ में ठीक सही तौर पर पायी जाती हैं। पदार्थ की इस अनेक-रूपता (धर्मात्मकता) को प्रतिपादन करने वाला सिद्धान्त अनेकान्तवाद कहलाता है। ___ यदि हम हाथी का चित्र पीछे की ओर से लें, तो उसमें पिछले पैर और पूंछ ही दिखाई देंगे, और यदि सामने से फोटो खीचें तो उसकी सूड, दाँत, आँख, कान, मुख, अगले पैर चित्र में आवेंगे, और Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि इसे ही दाँयी ओर से खींचा गया तो वह अन्य ढंग का होगा। इमी तरह वायीं ओर कैमरा रखकर फोटो खींचने से हाथी का चित्र पहिले तोन चित्रों ने विलक्षण होगा। इस तरह एक ही हाथी के ये चित्र भिन्न-भिन्न दिशा और कोणों से भिन्न-भिन्न प्रकार के होंगे। यद्यपि ये सभी एक दूसरे से विलक्षण हैं, तथापि हैं सव वास्तविक और एक ही हाथी के। तर्जनी (अंगूठे के पड़ोम की अंगुली) वड़ी भी है, क्योंकि अंगूठे मे तथा कनिष्ठा (पाँचवीं; मवसे छोटी अँगली) से लम्वाई में वह बड़ी है, परन्तु मध्यमा (बीच की अंगुली) में वह छोटी भी है ! इस तरह उसका छोटा और बड़ा होना उस एक ही नर्जनी में पाया जाता है। यह विरोधी है तथापि मापेक्ष होने में सही, संगत और मंतुलित है। हमाग भारत देश हिन्द महामागर में उत्तर दिशा में है, हिमालय से दक्षिण में है. अरव देश में पूर्व में है और ब्रह्म देश (वर्मा) स पश्चिम में है। आकार मे नीचे की ओर है और पाताल से ऊपर की ओर है। इस तरह एक ही भारत देश इन छर दिगाओं से छह तरह का है, छह तरह में कहा तथा माना जाता है; ये छहों वाते परम्पर-विरोधी है, तथापि विल्कुल ठीक हैं । पांच वर्ष का वच्चा अपने तीम वर्ष के पिता से छोटा भी है, क्योंकि उसका गरीर छोटा है. गरीर निर्बल है. बद्धि अल्प है। परन्तु वही पाँच वर्ष का वच्चा अपनी दो वर्प को वहन मे वड़ा भी है । और वास्तव में आयु की अपेक्षा देखा जाए तो वह पांच वर्ष का बच्चा अपने ६५ वर्ष के वावा (दादा) से ६० वर्ष नथा अपने पिता से ३० वर्ष वड़ा है, क्योंकि उसके वावा ने अपनी आय के ६५ वर्ष ममाप्त कर दिये हैं जवकि उस बच्चे ने अभी केवल पांच वर्ष ह. विताये हैं। उसका पिता अपने जीवन के ३० वर्ष बिता चुका जवकि उस बच्चे क अभी पाँच वर्ष ही बीते हैं। यदि तीनों की आय ८०-८० वर्ष हो तो उसका वावा केवल १५ वर्ष और जियेगा, उसका पिता Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० वर्ष और जीवित रहेगा तथा वह वच्चा (वावा और पिता से अधिक) ७५ वर्ष और जीवित रहेगा; किन्तु उसकी दो वर्ष की छोटी वहन ७८ वर्ष जियेगी, इस कारण वह अपने भाई से तीन वर्ष वड़ी है। इस तरह पांच वर्ष का यह एक ही बच्चा अपने धावा, पिता और दो वर्ष वाली वहन से छोटा भी है और बड़ा भी। उसका यह छोटा होना न कल्पित है, न उसका बड़ा होना अनुमानित है; दोनों ही कथन यथार्थ हैं, वास्तविक हैं; सापेक्ष हैं। ___इस तरह किसी पदार्थ के स्वरूप की छानबीन की जाए तो यह अनेक धर्मात्मक (अनेक रूप का) सिद्ध होता है, एक धर्म रूप ही प्रमाणित नहीं होता; इसलिए जगत् के समस्त पदार्थ अनेकान्त रूप हैं, एकान्त (एक ही रूप) रूप कोई भी पदार्थ गिद्ध नहीं होता। इस प्रकार सूक्ष्म तथा स्थल विचार से अनेकान्लवाद, यानी अनेकान्न का सिद्धान्त यथार्थ, अकाट्य, और तर्कसंगत सिद्ध होता है। जब हम कहते हैं कि 'आत्मा नित्य है', नव हमाग दष्टिकोण (पाइंट ऑफ व्ह्य । मौलिक आत्म-द्रव्य पर होता है, क्योंकि आत्मा अभौतिक द्रव्य है, अत: वह न तो अस्त्र-शस्त्रों मे छिन्न-भिन्न हो सकता है, न अग्नि में जल मकता है; न जल ने गल सकता है और न वायु से मुग्न सकता है। वह अनादि काल में अनन्त काल तक वना रहता है । परन्तु जब हम सांसारिक आवागमन को मुख्य करके आत्मा की पर्याय (भव-दशा) का विचार करते हैं तो आत्मा अनित्य सिद्ध होता है: क्योंकि आन्मा कभी मनप्य-भव में होता है, कभी मरकर पशुपक्षी आदि हो जाता है। इस तरह एक ही आत्मा में नित्यता भी है और अनित्यता भी। पुम्पार्थ मियुपाय' में इसका एक सुन्दर उदाहरण दिया गया है 'एकनाकर्षन्ती, श्लषयन्ती बस्तुतत्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी, नीतिमन्थान नेत्रमिव गोपी' ॥225॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૪ ( जिस तरह दही को मथकर मक्खन निकालने वाली ग्वालिन मथानी की रस्सी को एक हाथ से खींचती है और दूसरे हाथ की रस्सी को ढीला कर देती है; इसी तरह जैन-पदार्थ- निर्णय-पद्धति ( अनेकान्त -- वाद) पदार्थ के किसी एक धर्म को मुख्य करती है, तो दूसरे को गौण ( अमुख्य) कर देती है, उसे सर्वथा छोड़ नहीं देती । ) इस प्रकार अनन्त धर्मात्मक पदार्थों के किसी धर्म को मुख्य और अन्य धर्म को गौण करके विचार करने से तत्व का ठीक-ठीक निर्णय होता है । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी 'जो तच्च मयन्तं णियमा सहहिद सत्तभंगहि । लोयाण पण्ह बसबो ववहार पवत्तणटुं च ॥' -कातिकेयानप्रेक्षा ॥३११॥ ( जो लोक प्रश्न-वश तथा व्यवहार-सम्पादनार्थ अनेकान्त का श्रद्धान सप्तभंगी द्वारा नियम से करता है वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है। ) समस्त चेतन-अचेतन पदार्थ स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव की अपेक्षा से सत्स्वरूप हैं और पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव की अपेक्षया असत् स्वरूप हैं। यदि ऐसा अपेक्षया स्वीकार न किया जाए तो किसी इष्ट तत्त्व की व्यवस्था नहीं बन सकती-- 'स्यादस्ति स्वचतुष्टयाविरतः स्थानास्त्यपेक्षाकमात्, तत्स्यादस्ति च नास्ति चेति युगपत् सा स्थापवक्तब्धता । तत् स्यात् पृथगस्ति नास्ति युगपत् स्यादस्तिनास्त्याहिते, वक्तव्ये गुणमुल्य भावनिक्तः स्यात् सप्तभंगी विषिः॥ -श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्रम् ॥१०॥ (स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्तिनास्ति, स्यादवक्तव्य, म्यादस्त्यवक्तव्य, स्यान्नास्त्यवक्तव्य, स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्य-ये सात भंग हैं। वक्तव्य में गौण और मुख्य भाव नियत करने वाली यह 'सप्तभंग' विधि है ।) ___ भंग शब्द के भाग, लहर, प्रकार, विघ्न आदि अनेक अर्थ होते हैं, उनमें से यह 'भंग' शब्द प्रकारवाची लिया है; तदनुसार वचन के भंग सात प्रकार के हो सकते हैं, उससे अधिक नहीं क्योंकि आटवों तरह का कोई वचन-भंग नहीं होता और सात से कम मानने से कोई-न-कोई वचन-भंग छट जाता है। * 'सप्तधैव तत्सन्देह समुत्पादात् । -म्यावादसियिः ॥ (किसी भी पदार्थ के विषय में मन्देह की उत्पत्ति मात प्रकार मे ही हो सकती है।) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका कारण यह है कि किसी भी पदार्थ के विषय में जो भी वात कही जाती है, वह मौलिक रूप से तीन प्रकार की होती है (या हो सकती है)-१. 'है' (अस्ति) के रूप में; २. 'नहीं' (नास्ति) के रूप में; ३. न कह सकने योग्य (अवक्तव्य) के रूप में। इन तीन मूल अंगों को परस्पर मिलाकर तीन युगल (द्वि-संयोगी) रूप होते हैं-१. 'है' और 'नहीं' (अस्ति-नास्ति) रूप; २. 'है' और 'न कह सकने योग्य' (अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य)। इस तरह वचन-भंग सात तरह के हैं, इन सातों भंगों के समुदाय को (सप्तानां भङ्गानां समृदायः सप्तभंगी) 'सप्तभंगी' कहते हैं। (१) प्रत्येक वस्तु अपने (विवक्षित-कहने के लिए इष्ट) दृष्टिकोण (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव) की अपेक्षा 'अस्ति' (मौजूद) रूप होती है; जैसे-राम अपने पिता दशरथ की अपेक्षा 'पुत्र' है। (२) प्रत्येक वस्तु अन्य वस्तुओं की या अन्य (अविवक्षित) दृष्टिकोणों की अपेक्षा अभाव (नास्तित्व) रूप होती है; जैसे-राम राजा जनक (की अपेक्षा) के पुत्र नहीं हैं। (३) दोनों दृष्टिकोणों को क्रमशः कहने पर वस्तु अस्तित्व तथा अभाव (अस्ति-नास्ति) रूप होती है; जैसे-राम दशरथ के पुत्र हैं, जनक के पुत्र नहीं हैं। (४) परस्पर-विरोधी ('है' तथा 'नहीं' रूप) दोनों दृष्टिकोणों से एक साथ (युगपद्) वस्तु 'वचन द्वारा कही नहीं जा सकती' क्योंकि वैसा वाचक (कहने वाला) कोई शब्द नहीं हैं। अतः उस अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य (न कह सकने योग्य) होती है; जैसे-राम राजा दशरथ तथा राजा जनक की यगपद् (एक साथ एक शब्द द्वारा) अपेक्षा कुछ नहीं कहे जा सकते । (५) वस्तु 'न कह सकने योग्य' (युगपद् कहने की अपेक्षा अवक्तव्य) होते हुए भी अपने दृष्टिकोण से होती तो है (स्थात् अस्ति अवक्तव्य) जैसे-राम यद्यपि दशरथ तथा जनक की अपेक्षा एक ही शब्द द्वारा अवक्तव्य (न कहे जा सकने योग्य) है फिर भी राजा दशरथ की अपेक्षा पुत्र है (स्यात् अस्ति अवक्तव्य)। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) वस्तु अवक्तव्य (युगपद् कहने की अपेक्षा) होते हुए भी अन्य दृष्टिकोण से नहीं रूप (स्यात् नास्ति-अवक्तव्य) है; जैसे-राम दशरथ तथा जनक की युगपद् अपेक्षा पुत्र नहीं हैं, (स्यात् नास्ति अवक्तव्य)। (७) परस्पर विरोधी (है और नहीं रूप) दृष्टिकोणों से युगपद् (एक साथ एक ही शब्द द्वारा) अवक्तव्य (न कह सकने योग्य) होते हुए भी वस्तु क्रमश: उन परस्पर-विरोधी दृष्टिकोणों से है, नहीं (अस्ति नास्ति अवक्तव्य) रूप होती है; जैसे-राम राजा दशरथ तथा राजा जनक की अपेक्षा युगपद् रूप से कुछ भी नहीं कहे जा सकते (अवक्तव्य है) किन्तु युगपद् अपेक्षया अवक्तव्य होकर भी क्रमशः राम राजा दशरथ के पुत्र हैं, राजा जनक के पुत्र नहीं हैं। इस प्रकार सप्तभंगी प्रत्येक पदार्थ के विषय में लागू होती है। सप्तभङ्गी के लागू होने के विषय में मूल वात यह है कि प्रत्येक पदार्थ में अनुयोगी (अस्तित्व-रूप) और प्रतियोगी (अभावरूप-नास्तित्व रूप) धर्म पाये जाते हैं तथा अनुयोगी-प्रतियोगी धर्मों को युगपद् (एक साथ) किसी भी शब्द द्वारा न कह सकने योग्य रूप अवक्तव्य धर्म भी प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान है। अनुयोगी, प्रतियोगी और अवक्तव्य इन तीनों धर्मों के एक संयोगी (अकेले-अकेले) तीन भंग होते हैं तथा तीनों का मिलकर त्रि-मंयोगी भंग एक होता है। इस तरह सव मिलाकर सात भंग हो जाते है। ___ आचार्य कहते हैं-'अक्षरेण मिमते सप्त वाणीः'-सप्तविध वाक् अक्षरों द्वारा व्यक्त है । यहाँ प्रथमा, द्वितीयादि सप्त विभक्तियाँ ही ज्ञातव्य नहीं है, अपितु वाक् को सप्तभंगिमाएँ भी व्याख्यात हुई है। 'सप्त व्याहृति' वाणी को सप्तविध-संख्यान ही होना चाहिये। नहीं तो कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादन, सम्बन्ध, अधिकरण आदि कारक कैसे सिद्ध कर सकोगे; इसलिए सप्त-विध भंग ही शब्दशास्त्र से एवं वाणी से कथन करना सम्भव है । संगीत के स्वर और रवि, सोम, मंगल आदि भी तो सात हैं, सात संख्या महत्त्वपूर्ण है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद 'स्थावावो विद्यते यत्र, पक्षपातो न विद्यते । अहिंसायाः प्रधानत्वं, जैनधर्मः स उच्यते ॥ जानने और कहने में बहुत भारी अन्तर है, क्योंकि जितना जाना जा सकता है उतना कहा नहीं जा सकता । इसका कारण यह है कि जितने ज्ञान के अंश हैं, उन ज्ञान-अंशों के वाचक न तो उतने शब्द ही है और न ही उन सब ज्ञान-अंशों को कह डालने की शक्ति जीभ (रसना) में है। सामान्य दृष्टान्त है कि हम अंगूर, आम, अनार खाकर उनकी मिठास के अन्तर (मिष्ठता) को यथार्थतः पृथक्-पृथक् नहीं कह सकते। किसी भी इष्ट या अनिष्ट पदार्थ के छुने, सूंघने, देखने, सुनने में जो आनन्द या दुःख होता है, कोई भी मनुष्य उसे इन्द्रिय-जन्य ज्ञान को ठीक उसी रूप में मुख द्वारा कह नहीं सकता । परीक्षा में उत्तीर्ण (पास) होने वाले विद्यार्थी को अपना परीक्षाफल जानकर जो हर्ष हुआ, उस हर्ष को हजार यत्न करने पर भी वह ज्यों-का-त्यों कह नहीं सकता। गठियावात के रोगी को गठियावात की जो पीड़ा होती है, उसे वह शब्दों में नहीं बतला सकता। इस तरह एक तो जानने और कहने में यह एक बड़ा भारी अन्तर है। दूसरे जितना विषय एक समय में जाना जाता है यदि उसे मोटे रूप से भी कहना चाहें तो उसके कहने में जानने की अपेक्षा समय वहुत अधिक लगता है। किसी सुन्दर उद्यान का एक दृश्य देखकर जो उस बगीचे के विषय में एक ही मिनट में ज्ञान हुआ, उस सब को कहने में अनेक मिनट ही नहीं अपितु अनेक घंटे लग जाएंगे; क्योंकि जिन सब बातों को नेत्रों ने एक मिनट में जान लिया है, उनको जीभ (युगपद्) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक साथ कह नहीं सकती। उन बातों को कम से एक-एक करके कहा जा सकेगा। इसी कारण प्राचीन ग्रंथकारों ने लिखा है कि सर्वज्ञ अपने शान द्वारा जितना त्रिकालवर्ती तथा त्रिलोकवर्ती पदार्थों को युगपद् (समसामयिक) जानता है, उसका अनन्तवाँ भाग विषय उसकी वाणी से प्रगट होता है। जितना दिव्य-ध्वनि से प्रगट होता है उसका अनन्तवाँ भाग चार ज्ञानधारक गणधर अपने हृदय में धारण कर पाते हैं। जितना विषय धारण कर पाते हैं तथा उसका अनन्तवाँ भाग शास्त्रों में लिखा जाता है। इस प्रकार जानने और उस जाने हुए विषय को कहने में महान् अन्तर है। एक साथ जानी हुई बात को ठीक उसी रूप में एक साथ कह सकना असम्भव है। अतः जिस पदार्थ के विषय में कुछ कहा जाता है तो एक समय में उसकी एक ही वात कही जाती है, उस समय उसकी अन्य वातें कहने से छूट जाती हैं; किन्तु वे अन्य बातें उसमें होती अवश्य हैं। जैसे कि जव यह कहा जाए कि 'राम राजा दशरथ के पुत्र थे'। उस समय गम के साथ लगे हुए सीता, लक्ष्मण, लव-कुश आदि अन्य व्यक्तियों के पति, भ्राता, पिता आदि के सम्बन्ध कहने से छूट जाते हैं, जो कि यथार्थ हैं। यदि उन छुटे हुए सम्वन्धों का अपलाप कर लिया जाए (सर्वथा छोड़ दिया जाए) तो राम-सम्बन्धी परिचय (जानकारी) अधूरा रह जाएगा और इसी कारण वह कहना गलत (अयथार्थ) प्रमाणित (सावित) होगा। इस गलती या अधूरेपन को हटाने के लिए जैनधर्म-सिद्धान्त ने प्रत्येक वाक्य के साथ 'स्यात्' शब्द लगाने का निर्णय दिया है। 'स्यात्' शब्द का अर्थ 'कथंचित्' यानी 'किसी-दृष्टिकोण से' या 'किमी अपेक्षा से' है । अर्थात् जो वात कही जा रही है, वह किसी एक अपेक्षा से (किसी एक दृष्टिकोण से) कही जा रही है, जिसका Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अभिप्राय यह प्रगट होता है कि यह विषय अन्य दृष्टिकोणों से या अन्य अपेक्षाओं से अन्य अनेक प्रकार भी कहा जा सकता है। तदनुसार राम के विषय में यों कहेंगे-स्यात् (राजा दशरथ की अपेक्षा) राम पुत्र हैं। 'स्यात्' (सीता की अपेक्षा) राम 'पति' हैं। स्यात् (लक्ष्मण की अपेक्षा) राम 'माता-भाई' हैं। स्यात् (लवांकुश की अपेक्षा) राम 'पिता' हैं। स्यात् (राजा जनक की अपेक्षा) राम 'जामाता' (दामाद) हैं। इस तरह 'स्यात्' शब्द लगाने से उस वड़ी भारी त्रुटि (गलती), उपर्युक्त पांच वातों में से एक ही बात कहने पर होती है, का सम्यक् परिहार हो जाता है। यानो-राम 'पुत्र' तो हैं, किन्तु वे सर्वथा (हर तरह से) पुत्र ही नहीं हैं, वे पति, भाई, पिता, दामाद आदि भी तो. हैं। हाँ, वे राजा दशरथ को अपेक्षा से पुत्र ही हैं। इस ‘अपेक्षा' शब्द से उसके अन्य दूसरे पति, भाई, पिता, दामाद आदि सम्बन्ध सुरक्षित रहे आते हैं। स्यात् भारत (हिमालय की अपेक्षा) दक्षिण में है। इससे यही ध्वनि निकलती है कि भारत देश सर्वथा (हर एक तरह से सर्वथा) दक्षिण में ही नहीं है, अपितु अन्य दृष्टिकोणों से अन्य दिशाओं में भी है। तदनुसार-'स्यात् (पर्याय की अपेक्षा-मनुष्य, पशु आदि नश्वर शरीरों की दृष्टि से) जीव अनित्य है'। इस सत्य वात की भी रक्षा हो जाती है। इस प्रकार 'स्यात्' निपात के संयोग से संसार के सभी सैद्धान्तिक विवाद शान्त हो जाते हैं और पूर्ण सत्य का ज्ञान हो जाता है। किसी भवन के चारों ओर खड़े होकर चार फोटोग्राफर यदि उस भवन के फोटो लें, तो उस एक ही भवन के चारों फोटो चार Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न (अलग-अलग तरह के होंगे। यदि ये चारों अपने-अपने फोटों को ठीक बताकर परस्पर झगड़ने लगे कि 'मेरा फोटो ठीक है, तुम तीनों के फोटो गलत है तो उस विवाद का यथार्थ तथा चारों फोटोग्राफरों के लिए संतोषजनक निर्णय (फैसला) 'स्यात्' कोई एक (इष्ट) दृष्टिकोण कर सकता है। तदनुसार निर्णय दिया जाएगा कि 'स्यात्' (सामने की अपेक्षा) इस (भवन के सामने खड़े होकर, खींचने वाले) फोटोग्राफर का फोटो ठीक है। 'स्यात्' (पीछे भाग की अपेक्षा) पीछे से फोटो लेने वाले का फोटो ठीक है। 'स्यात्' (दाहिनी ओर की अपेक्षा) दाहिनी ओर से फोटो लेने वाले फोटोग्राफर का फोटो ठीक है। 'स्यात्' (वाई ओर की अपेक्षा) वाई ओर से फोटो लेने वाले फोटोग्राफर का फोटो ठीक है। इस तरह सवका संतोषजनक यथार्थ निर्णय 'स्यात्' लगाने से हो जाता है। जगत् के विभिन्न मत-मतान्तर अपने-अपने एक-एक दृष्टिकोण ही को सत्य मानकर दूसरों के दृष्टिकोण से प्रकट की गई मान्यता असत्य वतलाकर परस्पर विवाद करते हैं। उनका विवाद 'स्यात्' पद लगाकर दूर किया जा सकता है। अनेकान्तवाद और सप्तभंगी स्याद्वाद के रूपान्तर हैं। स्याद्वाद एक वास्तविक अकाट्य सिद्धान्त है; किन्तु यह दार्शनिक तर्क-विषय है, अत: कुछ कठिन है। अनेक व्यक्ति इसका स्वरूप ठीक न समझ सकने के कारण इसे गलत ठहराने का यत्न करते हैं। ऐसी त्रुटि साधारण व्यक्ति ही नहीं, बड़े-बड़े विद्वान् भी कर जाते है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानों की सम्मतियाँ हिन्दू विश्व विद्यालय बनारस के दर्शन विषय (फिलासफी) के भूतपूर्व प्रधान अध्यापक श्री फणिभूषगजी अधिकारी का कथन है "जनधर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त को जितना गलत समझा गया है उतना किसी अन्य सिद्धान्त को नहीं, यहां तक कि शंकराचार्य भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय किया। यह बात अल्पज्ञ पुरुष के लिये क्षम्य हो सकती थी, किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मैं भारत के इस महान् विद्वान के लिए तो अक्षम्य ही कहूँगा, यद्यपि मैं इस महपि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता है। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इम धर्म के दर्शन-शास्त्र के मूल ग्रन्थों के अध्ययन करने की परवाह नहीं की।" श्री महामहोपाध्याय सत्या सम्प्रदायाचार्य प. स्वामी राममिश्र जी शास्त्री प्रोफेसर संस्कृत कालेज, वाराणसी लिखते हैं "मैं कहाँ तक कहूँ, बड़े-बड़े नामी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जो जनमत का खण्डन किया है वह ऐमा किया है जिसे सुन-देख हमी आती है, स्याद्वाद यह जैनधर्म का एक अभेद्य किला है, उसके अन्दर वादी-प्रतिवादियों के मायामय गोले नहीं प्रवेश कर सकते। जैनधर्म के सिद्धान्त प्राचीन भारतीय तत्व-ज्ञान और धार्मिक पद्धति के अभ्यासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं । इस स्याद्वाद से सर्व सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है।" इणिया ऑफिस लन्दन के प्रधान पुस्तकालयाध्यक्ष गं. थामस के उद्गार बड़े महत्वपूर्ण हैं; वे कहते हैं कि "न्यायशास्त्र का स्थान बहुत ऊँचा है । स्याद्वाद का स्थान बड़ा गम्भीर है। वह वस्तुओं को भिन्न-भिन्न परिस्थितियों पर अच्छा प्रकाश डालता है।" भारतीय विद्वानों में विख्यात निष्पक्ष आलोचक एवं 'सरस्वती' पत्रिका के सम्पादक स्व. पं. महावीर प्रसाद दिया लिखते हैं "प्राचीन दर्जे के हिन्दू धर्मावलम्बी बड़े-बड़े शास्त्री तक अब भी नहीं जानते कि जैनियों का स्यावाद किस चिड़िया का नाम है । धन्यवाद है जर्मनी, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फांस और इग्लैंड के कुछ विद्यानुरागी विशेषज्ञों को जिनकी कृपा से इस धर्म के अनुयायियों के कीर्ति-कलाप की खोज की ओर भारत वर्ष के इतर जनों का का ध्यान आकृष्ट हुआ। यदि ये विदेशी विद्वान् जनों के धर्म-ग्रन्थों की आलोचना न करते, उनके प्राचीन लेखकों की महत्ता प्रगट न करते तो हम लोग शायद आज भी पूर्ववत् अज्ञान के अन्धकार में ही डूबे रहते'। महात्मा गाँधी जी लिखते हैं "मेरा अनुभव है कि अपनी दृष्टि से मैं सदा सत्य ही होता हूँ, किन्तु मेरे ईमानदार आलोचक तब भी मुझमें गलती देखते हैं । पहले मैं अपने को ही सही और उन्हें अज्ञानी मान लेता था, किन्तु अब मैं मानता है कि अपनीअपनी जगह हम दोनों ठीक हैं, कई अंघों ने हाथी को अलग-अलग टटोलकर उसका जो वर्णन किया था वह दृष्टान्त अनेकान्तवाद का सबसे अच्छा उदाहरण है । इसी सिद्धान्त ने मुझे यह बतलाया है कि मुसलमान की जाँच मुस्लिम दृष्टिकोण से तथा ईसाई की परीक्षा ईसाई दृष्टिकोण से की जानी चाहिये । पहले मैं मानता था कि मेरे विरोधी अज्ञान में हैं। आज मैं विरोधियों की दृष्टि से भी देख सकता हूँ। मेरा अनेकान्तवाद सत्य, और अहिंसा-इन युगल सिद्धान्तों का ही परिणाम है।" उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री स्व. डॉ. सम्पूर्णानन्दजी लिखते हैं___ "अनेकान्तवाद या सप्तभंगीन्याय जैन-दर्शन का मुख्य सिद्धान्त है। प्रत्येक पदार्थ के जो सात अन्त या स्वरूप जैन शास्त्रों में कहे गये हैं, उनको ठीक रूप में स्वीकार करने में आपत्ति हो सकती है। कुछ विद्वान् भी सात में कुछ को गौण मानते हैं। साधारण मनुष्य को वह समझने में कठिनाई होती है कि एक ही वस्तु के लिए एक ही समय में है और नहीं है, दोनों बातें कैसे कही जा सकती हैं, परन्तु कठिनाई के होते हुए भी वस्तुस्थिति तो मी ही है।" श्री . एस. वी. नियोगी एम. ए., एल.एल.एम., एल.सी. भूतपूर्व चीफ जस्टिस नागपुर हाईकोर्ट तथा उपकुलपति नागपुर विश्वविद्यालय, लिखते है-- "जैनाचार्यों की यह वृत्ति अभिनन्दनीय है कि उन्होंने ईश्वरीय आलोक (Revelation) के नाम पर अपने उपदेशों में ही सत्य का एकाधिकार नहीं बताया, इसके फलस्वरूप उन्होंने साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता के दुर्गणों को दूर कर दिया। जिसके कारण मानव-इतिहास भयंकर द्वन्द्व और Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्तपात के द्वारा कलंकित हुआ। अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद विश्व के दर्शनों में अद्वितीय हैं। . . . . 'स्याद्वाद सहिष्णुता और क्षमा का प्रतीक है, कारण वह यह मानता है कि दूसरे व्यक्ति को भी कुछ कहना है। · · · 'सम्यग्दर्शन और स्याद्वाद के सिद्धान्त औद्योगिक पद्धति द्वारा प्रस्तुत की गई जटिल समस्याओं को सुलझाने में अत्यधिक कार्यकारी होंगे।-जैन शासन, पृ.२४-२५ संस्कृत के उद्भट विद्वान् ग. गंगानाथजी मा ने लिखा है 'जब से मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्त का खण्डन पढ़ा है तब से मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है जिसे वेदान्त के आचार्य ने नहीं समझा । और जो कुछ अब तक जैनधर्म को जान सका हूँ उससे मेरा दृढ़ विश्वास हुआ है कि यदि वे जैनधर्म को उसके मूल ग्रन्थों से देखने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैनधर्म का विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती।' श्री प्रो. आनन्द शंकर बाबू भाई ध्रुव लिखते हैं "महावीर के सिद्धान्त में बताये गये स्याद्वाद को कितने ही लोग संशयबाद कहते हैं, इसे मैं नहीं मानना । म्याद्वाद संशयवाद नहीं है, किन्तु वह एक दृष्टि-बिन्दु हमको उपलब्ध कग देता है। विश्व का किस रीति से अवलोकन करना चाहिए यह हमें सिखाता है । यह निश्चय है कि विविध दृष्टि-बिन्दुओं द्वारा निरीक्षण किये बिना कोई भी वस्तु सम्पूर्ण स्वरूप में आ नहीं सकती। स्यावाद (जैनधर्म) पर आक्षेप करना यह अनुचित है।" वर्णी अभिनन्दन अन्य में पं. बलदेव उपाध्याय ने लिखा है___ "उपनिषदों में किमी एक ही मत के प्रतिपादन की बात (एकान्त) ऐतिहासिक दृष्टि से नितान्त हेय है, उनकी समता तो उस ज्ञान के मानसरोवर (अनेकान्त) से है जहाँ से भिन्न-भिन्न धार्मिक तथा दार्शनिक धाराएं निकलकर इस भारत-भूमि को आप्यायित करती आयी हैं। इस धारा (स्याद्वाद) को अग्रसर करने में ही जैन धर्म का महत्व है। इस धर्म का आचरण सदा प्रत्येक जीव का कर्तव्य है । वर्धमान तीर्थकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है।" अनंतशयनम् अय्यंगार, (अध्य लोकसभा भू.पू.) लिखते हैं "भारत के महान संतों, जैसे जैनधर्म के तीर्थंकर ऋषभदेव व भगवान् महावीर के उपदेशों को हमें पढ़ना चाहिए। आज उन्हें अपने जीवन में उतारने का सबसे ठीक समय आ पहुंचा है; क्योंकि जैनधर्म का तत्वज्ञान अनेकान्त (सापेक्ष्य पद्धति) पर आधारित है, और जैनधर्म का आचार अहिंसा पर Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ प्रतिष्ठापित है । जैनधर्म कोई पारस्परिक विचारों, ऐहिक व पारलौकिक मान्यताओं पर अन्ध श्रद्धा रखकर चलने वाला सम्प्रदाय नहीं है, वह मूलतः एक विशुद्ध वैज्ञानिक धर्म है । उसका विकास एवं प्रसार वैज्ञानिक ढंग से हुआ है। क्योंकि जैन धर्म का भौतिक विज्ञान, और आत्मविद्या का क्रमिक अन्वेषण आधुनिक विज्ञान के सिद्धान्तों से समानता रखता है। जैनधर्म ने विज्ञान के उन सभी प्रमुख सिद्धान्तों का विस्तृत वर्णन किया है । जैसे कि पदार्थविद्या, प्राणिशास्त्र, मनोविज्ञान और काल, गति-स्थिति, आकाश एवं तत्वानुसंधान | श्री जगदीश चन्द्र बसु ने वनस्पति में जीवन के अस्तित्व को सिद्ध कर जैनधर्म के पवित्र धर्मशास्त्र भगवती सूत्र के वनस्पति कायिक जीवों के चेतनत्व को प्रमाणित किया है ।" 00 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंकराचार्य और स्याद्वाद 'आचार्य शंकर ने जैनों के स्याद्वाद को 'संशयवाद' तथा 'अनिश्चितवाद' की संज्ञा दी है। उसका कारण यह है कि उन्होंने 'स्यादस्ति' का आशय 'शायद' के रूप में ग्रहण किया है; किन्तु आचार्य शंकर के इस मन्तव्य को जैन दार्शनिक स्वीकार नहीं करते। वे वस्तु को अनेक धर्म (गुण) वाली कहते हैं और स्यादस्ति' के साथ 'एव' शब्द का प्रयोग करते हैं। इसलिए स्याद्वादी सिद्धान्त का समर्थक विद्वान् किसी भी वस्तु के सम्बन्ध में निर्णय देते हुए यही कहेगा कि अमुक अपेक्षा से ही ऐसा होता है। शंकराचार्य ने जो यह शंका व्यक्त की है कि एक ही पदार्थ में नित्य और अनित्य धर्म नहीं रह सकते; उसका उत्तर ऊपर के उदाहरण में दिया जा चुका है, अर्थात् जैसे एक ही व्यक्ति अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है और अपने पिता की अपेक्षा पुत्र भी है, इसी प्रकार एक ही पदार्थ में दो विरोधी धर्म अपेक्षा भेद से रहते हैं। उदाहरण के लिए केन्द्र में बैठा हुआ व्यक्ति, उसके चारों ओर खड़े हुए व्यक्तियों की अपेक्षा भेद मे भिन्न-भिन्न दिशाओं में बैठा हुआ सिद्ध होता है। उसी प्रकार पदार्थ के नित्यानित्य धर्मों में कोई विरोध नहीं आने पाता, छोटी और बड़ी वस्तुओं का छोटापन और वड़ापन अपेक्षा भेद इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेकान्त का अनुसंधान भारत की अहिसा साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितनी ही शीघ्र अपनायेगा, विश्व में शान्ति भी उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी।' १. भारतीय दर्शन, वाचस्पति गैरोला, पृष्ठ ११६, २. संस्कृति के चार प्रध्याय, रामधारीसिंह 'दिनकर', पृष्ठ १३७ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ 'सिद्धिरनेकान्तात्' - ( शब्दार्णव चन्त्रिका, सोमदेव सूरि- १ ) "सिद्धिः शब्दानां निष्पतिशंप्तिर्वा भवत्यनेकान्तात् । अस्तित्वन:स्तित्वनित्यत्वानित्यत्व विशेषण विशेषाद्यात्मकत्वात् दृष्टेष्ट प्रमाणाविरुद्धाचाशास्त्र, परिसमाप्तेरित्येवोऽधिकारो बेषितव्यः । वक्यति - सात्येतादिरितिअनेकान्ताधिकारे सत्येवाद्यन्त व्यपदेशो घटते अन्धया तदभावात् किं केन सह गृह्येत् यतः सज्ञा स्थात् ।" ( अनेकान्त से सिद्धि होती है; अर्थात् शब्दोंकी निष्पत्ति अथवा ज्ञप्ति अनेकान्त से होती है। अस्तित्व- नास्तित्व, नित्यत्व- अनित्यत्व, विशेषण और विशेष्य आदि अनेकान्तात्मक हैं अतः इष्ट प्रमाण से अविरुद्ध दृष्टिगोचर होने से इस अनेकान्त का अधिकार इस ( व्याकरण शास्त्र) की परिसमाप्ति पर्यन्त जानना चाहिये। जैसा कि आगे कहा जाएगा । 'सात्येतादि' ( सूत्र ) जिसका अर्थ है ' इत्संज्ञक के साथ उच्चार्यमाण आदि वर्ण अपने सहित उन मध्यपतित वर्णाक्षरों का ग्राहक होता है' अर्थात् 'अण्' यह प्रत्याहार है। इसमें 'अ इ उ ण्' सूत्रान्तःस्थ वर्णों का ग्रहण है । प्रथमाक्षर अ और अन्त्य ण् के मध्यवर्ती 'इ- उ' का ग्रहण भी होता है । यह अनेकान्त अधिकार होने पर ही घटित हो सकता है अन्यथा उसके अभाव में किससे किसका ग्रहण किया जाए की संज्ञा का निर्माण हो । ) 'सर्वान्तवत्तद्गुण मुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥६२॥ -- आचार्य समन्तभद्र युक्त्यानुशासन ( हे तीर्थंकर महावीर, आपका ही यह धर्मतीर्थ सर्वोदय सर्व अभ्युदयकारी है अन्य का नहीं; क्योंकि गौण-मुख्य आदि सर्व-धर्मान्मक हैं और जो परस्पर निरपेक्ष है वह सर्वधर्म - शून्य है, हे भगवन ! आपका यह तीर्थ समस्त आपत्तियों का अन्त करने वाला और स्वयं भी अन्त रहित है ।' Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और स्याद्वाद विश्व के प्राणियों में विचार-भिन्नता दृष्टिगत होती है। यह आश्चर्य का विषय नहीं; क्योंकि व्यक्तियों का चिन्तन स्वतन्त्र और वहुमुख होना स्वाभाविक है । यदि प्रत्येक व्यक्ति दूसरे प्रत्येक व्यक्ति के भिन्न चिन्तन को विरोध की दृष्टि से देखेगा तो उसका ज्ञान अपने चिन्तन में ही सीमित रह जाएगा और वद्धमूल होने पर वह एकांगी विचार पारस्परिक द्वेष और असहिष्णुता को उत्पन्न करेगा। अतएव ज्ञान की समस्त उपासना चाहने वाले को अपने और विरोधी दोनों दृष्टिकोणों पर चिन्तन करना होगा। 'स्यात्' यह घट है ऐसा अनेकान्तविमर्श सत्य विन्दु को प्राप्त कराने में सहायक सिद्ध हो। जैनधर्म में अनेकान्त-दर्शन इसी एक भिन्न 'स्यात्' की प्रतीति में सहायता पहुंचाने वाला तात्त्विक विमर्श-पथ है। स्याद्वाद की व्युत्पत्ति स्याद्वाद-'स्यात्' और 'वाद' इन दो पदों से बना है। 'स्यात्' विधिलिङ्ग में वना हुआ तिङन्त प्रतिरूपक निपात है। न तो यह 'शायद' न सम्भावना और न कदाचित् का प्रतिपादक है किन्तु सुनिश्चित दृष्टिकोण का वाचक है (ए पर्टीक्यूलर पाइण्ट ऑफ व्ह्य)। ___ यह अनेकान्त दृष्टि सम्यग्दर्शन है, समस्याओं के समाधान का रत्न-पुलिन है। इससे भिन्न विचारों पर आक्रोश उत्पन्न नहीं होता क्योंकि आक्रोश अथवा उत्तेजना अपने लघुत्व से उत्पन्न होती है। उसके स्थिर चित्त में इन विसंवादों से चलित भाव नहीं आता प्रत्युत अर्थ की सर्वाग-पूर्णता प्रतीत कर और अधिक दृढ़ स्थैर्य प्राप्त होता है 'सापेमाहि नयाः सिता दुर्नया अपि लोकतः । स्याहादिना व्यवहारात् कुक्कुटग्रामवासितम् ॥' -सिद्धिविनिश्चय १०।२७।। वाक्येष्वनेकांतयोती गम्यम्प्रतिविशेषक : । स्यानिपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि।। -प्राप्तमीमांसा, १.३ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः सिद्धनय वे ही हैं जो अपेक्षा-जनित हैं। वैसे लोक व्यवहार से दुनयों का साधन भी किया जाता है; जैसे कुक्कुट का ग्राम में बोलना, यद्यपि कुक्कुट ग्राम के किसी एक प्रदेश विशेष में बोल रहा है तथापि उपचार से कह दिया गया कि कुक्कुट गाँव में बोल रहा है। यह निरपेक्षनय लोक व्यवहार से है, अथवा अन्य उदाहरण-'वृक्ष कपिसंयोगी' कपि किसी वृक्ष को एक शाखा पर बैठा है, पूरे वृक्ष से उसका संयोग नहीं है तथापि कपि वृक्ष पर बैठा है, ऐसा लोक-व्यवहार प्रक्लुप्त व्यवहार है, दुर्नय हैसमर्थ वचन 'समर्थवचनं जल्पं चतुरंग बिदुधाः । पक्ष निर्णय पर्यन्तं फलं मार्ग प्रभावना ॥' -सिद्धि विनिश्चय, (अकलंकदेव) २ स्व पक्ष साधन में समर्थवचन को चतुरंगवाद या जल्प कहते हैं। उसकी अवधि पक्ष निर्णय पर्यन्त है और फल मार्ग प्रभावना है। चतुरंगवाद वाद के चार अंग हैं-वादी, प्रतिवादी, सभ्य और सभापति । यह विवाद चर्चा को एक प्रमख विषय है। वाद का प्रयोजन 'तत्व ज्ञान की प्राप्ति अथवा प्राप्त तत्व ज्ञान की रक्षा' माना गया है । वादी प्रतिवादी आदि अंग चतुष्टय द्वारा निर्णीत होने से वाद को चतुरंग कहा है। इस चतुष्टय में कोई मतभेद नहीं है तथापि साध्य-साधन प्रणाली में मतभेद है, वाद का प्रयोजन निष्कर्ष की प्राप्ति है। यह वाद न्याय-परम्परा तथा जैन-परम्परा में द्विविध विभक्त है। न्याय परम्परा का वाद छल-प्रयोग द्वारा भी अपने प्रतिवादी को परास्त करने की इच्छा रखता है, परन्तु जैन-परम्परा तत्त्व-शोध-निर्णय को मुख्य मानती है अतः विजिगीषा रखते हुए भी न्यायरीति का अनुसरण करना उचित मानती है। वाद का अंतिम परिणाम जय-पराजय है। इस जय अथवा पराजय की स्थिति में भी अहिंसक दृष्टिकोण को ही जैनाचार्य अकलंक देव ने महत्त्व दिया है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार पदार्थ-विचार तथा यथार्थ तात्विक निर्णय स्याद्वाद द्वारा ही होता है। एक ही दृष्टिकोण से विचार करना जहाँ पारस्परिक विवाद का मूल कारण रहता है, वहीं एक अधुरा एवं असत्य भी रहता है, ये त्रुटियाँ स्याद्वाद से दूर हो जाती है। अतः बद्धि-विकास, यथार्थ निर्णय, पारस्परिक विवाद-निवारण के लिये स्याद्वाद सिद्धान्त परम उपयोगी है। अनेकान्तवाद, सप्तभङ्गीवाद, 'स्याद्वाद' के ही नामान्तर हैं। 'नय अनन्त इह विधि कही, मिल न काहू कोई / जो सब नै साधन करे, स्थाढाव है सोई॥' -नाटक समयसार, बनारसीदास // 7 // नय* अनेक है, कोई किसी से नहीं मिलते, परस्पर विरुद्ध है और जो सव नयों को साधता है, वह 'स्याहाद' है। DD *माता के हृदय के अभिप्राय को 'नय' कहते हैं