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________________ एक साथ कह नहीं सकती। उन बातों को कम से एक-एक करके कहा जा सकेगा। इसी कारण प्राचीन ग्रंथकारों ने लिखा है कि सर्वज्ञ अपने शान द्वारा जितना त्रिकालवर्ती तथा त्रिलोकवर्ती पदार्थों को युगपद् (समसामयिक) जानता है, उसका अनन्तवाँ भाग विषय उसकी वाणी से प्रगट होता है। जितना दिव्य-ध्वनि से प्रगट होता है उसका अनन्तवाँ भाग चार ज्ञानधारक गणधर अपने हृदय में धारण कर पाते हैं। जितना विषय धारण कर पाते हैं तथा उसका अनन्तवाँ भाग शास्त्रों में लिखा जाता है। इस प्रकार जानने और उस जाने हुए विषय को कहने में महान् अन्तर है। एक साथ जानी हुई बात को ठीक उसी रूप में एक साथ कह सकना असम्भव है। अतः जिस पदार्थ के विषय में कुछ कहा जाता है तो एक समय में उसकी एक ही वात कही जाती है, उस समय उसकी अन्य वातें कहने से छूट जाती हैं; किन्तु वे अन्य बातें उसमें होती अवश्य हैं। जैसे कि जव यह कहा जाए कि 'राम राजा दशरथ के पुत्र थे'। उस समय गम के साथ लगे हुए सीता, लक्ष्मण, लव-कुश आदि अन्य व्यक्तियों के पति, भ्राता, पिता आदि के सम्बन्ध कहने से छूट जाते हैं, जो कि यथार्थ हैं। यदि उन छुटे हुए सम्वन्धों का अपलाप कर लिया जाए (सर्वथा छोड़ दिया जाए) तो राम-सम्बन्धी परिचय (जानकारी) अधूरा रह जाएगा और इसी कारण वह कहना गलत (अयथार्थ) प्रमाणित (सावित) होगा। इस गलती या अधूरेपन को हटाने के लिए जैनधर्म-सिद्धान्त ने प्रत्येक वाक्य के साथ 'स्यात्' शब्द लगाने का निर्णय दिया है। 'स्यात्' शब्द का अर्थ 'कथंचित्' यानी 'किसी-दृष्टिकोण से' या 'किमी अपेक्षा से' है । अर्थात् जो वात कही जा रही है, वह किसी एक अपेक्षा से (किसी एक दृष्टिकोण से) कही जा रही है, जिसका
SR No.010812
Book TitleTirthankar Varddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1973
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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