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आये हुए उठकर चले गये, अनेक वहीं ठहरे रहे। दूसरा दिन हुआ, दूसरी रात हुई; किन्तु तीर्थंकर की वाणी प्रकट न हुई । इसी तरह कई दिवस व्यतीत हुए किन्तु तीर्थंकर का उपदेश वहाँ पर न हुआ। जनता का चित्त कुछ म्लान हो गया। कतिपय दिन पश्चात् तीर्थंकर का वहाँ से अन्य स्थान के लिए विहार भी हो गया। तीर्थंकर महावीर के आगे-आगे धर्मचक्र चलता था जिसको चमकती हुई कान्ति समझदारों के लिए भी क्षणभर द्वितोय सूर्य-विव की शंका उत्पन्न कर देती थी ।
महावीर तीर्थंकर के विहार करते ही कुबेर ने उस मनोज्ञ दिव्य समवशरण को स्वल्प समय में ही हटा लिया, वहाँ पर फिर पहिले जैसा साफ मैदान हो गया। विहार के अनन्तर तीर्थंकर जहाँ ठहरे, वहाँ कुबेर ने पहिले जेसा भव्य सभा-मंडप (समवशरण) थोड़े समय में ही बना दिया । वहाँ भी असंख्य श्रोता (उपदेश सुनने वाले) एकत्र हुए, परन्तु अनेक दिन-रात व्यतीत होने पर भी वहाँ भी उपदेश न हुआ। वहां से भी तीर्थंकर का विहार हो गया। वहाँ का समवरशरण विघट (विजित) गया, तीर्थंकर जहाँ पर ठहरे, वहाँ नवीन समवशरण वना। परन्तु अनेक दिन बीत जाने पर तीर्थकर का उपदेश वहाँ पर भी न हुआ ।
तीर्थंकर के इस मौन पर समस्त जनता चकित थी परन्तु मौन का कारण कोई न जान सका । सवकी धारणा यही थी, महावीर तीर्थकर हैं, मक केवली नहीं हैं, अतः उनका उपदेश तो अवश्य होगा, कब प्रारम्भ होगा, यह ज्ञात नहीं।
विहार करते-करते तीर्थंकर राजगृही के निकट विपुलाचल पर्वत पर आये वहाँ भो सुन्दर विशाल समवशरण वना और यथा समय असंख्य श्रोता भी वहां एकत्र हए. परन्तु यहाँ भी तीर्थंकर महावीर मौन रहे ।
'अग्रेसरं व्योमनि धर्मचक्रं तस्य स्फुरम्दामुररश्मि चक्रम् । द्वितीय तिरमनि विवर्णका क्षणं बुधानामपि कुर्वदासीत् ।'
-प्रमग, वर्धमान चरित. १८/८६