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'रुचीनां वैचित्र्यादृजु कुटिल नाना पथजुषा ।
नृणाम को गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव' । महिम्नस्त्रोत को सर्वधर्म समानत्व को करने में समर्थ यह उदारता वैदिक शास्त्रों में उपदिष्ट है । यं शंवा समुपासते' और 'यो विश्वं वेदवेद्यं आदि वैदिक और मट्टाकलंक के उदार भावों से अनुप्राणित मंगल श्लोक प्रसिद्ध हैं।
इसी प्रकार मनुस्मृति में लिखा है कि ६८ तीर्थों की यात्रा का जो फल होना है वह एक आदिनाथ के स्मरण से प्राप्त हो जाता है।
महामाग्न में जीवदया के संबंध में उल्लेख है कि एक ओर स्वर्णमे और ममस्त पृथ्वी और दूसरी ओर एक प्राणी का जीवन; फिर भी जीवन का मूल्य उससे अधिक है। ___ इतिहाम में यह देखने को मिलता है कि युग-महापुरुषों के शिष्यों ने अपने गुरुजनों के प्रदर्शिन मार्ग के प्रचार के नाम पर उन्मत्त होकर कलह और विद्वेष के वीज बोये, मजहब के नाम पर हिंसा और संघर्ष की जड़ जमाने की कोशिश की, पर क्षत्रिय शामक तीर्थंकरों आदि (जिनमें रामाकृष्ण आदि भी सम्मिलित हैं) ने मानव-हृदय को संस्कृत बनाना धर्म का उद्देश्य है यह उदघोषित करते हुए उसके नाम पर उत्पन्न किये गये दोपों को दूर कर स्वयं वीतरागता प्राप्त कर अहिंसा और अनेकांत रूप विश्व-कल्याणकारी मार्ग का उपदेश दिया। छान्दोग्य उपनिषद् ५-३ में गौतम गोत्रिय ऋपि क्षत्रिय राजा प्रवहण से आत्मविद्या के विषय में प्रश्न करते हैं और उन्हें उत्तर मिलता है कि "पूर्वकाल में तुम से पहले यह विद्या ब्राह्मणों के पास नहीं गयी इसीसे संपूर्ण लोकों में इस विद्या के द्वारा क्षत्रियों का ही अनुशासन होता रहा है।" इसी प्रकार छान्दोग्य उपनिषद् ५-११ में केकयकुमार अश्वपति राजा द्वाग पग्म थोत्रिय ऋपियों को आत्म विद्या के उपदेश देने का उल्लेख मिलता है। भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट अहिंसा इत्यादि सिद्धांतों के प्रसार करने का श्रेय इन्द्रभूनि गौतम, वायुभूति, अग्निभूति प्रभृति वंदवेदांग पारंगत ब्राह्मण-थुप्ठों को है, जो परम तपस्वी और ब्रह्मचारी थे और राजगृह से मुक्त हुए थे । महावीर-निर्वाण के पश्चात् भी आचार्य विद्यानंद आदि उद्भट विद्वान् स्याद्वाद-दर्शन के महान् प्रचार-प्रसार करने वाले हो चुके हैं। वर्तमान में वर्णी गणेशप्रसादजी भी ऐसे ही थे।
१ जल के स्थान समुद्र ममान विभिन्न मार्ग और रुचिवालों के लिए मान्मा की मुक्ति-प्राप्ति का
उद्देश्य तो एक ही है। २ प्रष्ट षष्टिषु तीर्थेषु यावायां यत्फलंभवेत्। श्री. मादिनाथदेवस्य स्मरणेनापितद्भवेत् ।। ३ एकतः कांचना मेरु: कृत्स्ना व वसुन्धरा । जीवस्य जीवितं चैव तत्तुल्यं कदास्यत ।।