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तीर्थंकर वर्द्धमान
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"यह सुविदित है कि जैन धर्म की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है । भगवान् महावीर तो अन्तिम तीर्थंकर थे । मिथिला प्रदेश के लिच्छवी गणतन्त्र से, जिसकी ऐतिहासिकता निर्विवाद है, महावीर का कौटुम्विक सम्पर्क था । उन्होंने श्रमण परम्परा को अपनी तपश्चर्या के द्वारा एक नयी शक्ति प्रदान की जिसकी पूर्णतम परम्परा का सम्मान दिगम्वर-परम्परा में पाया जाता है । भगवान् महावीर से पूर्व २३ तीर्थकर और हो चुके थे । उनके नाम और जन्म-वृतान्त जैन साहित्य में सुरक्षित हैं। उन्हींमें भगवान् ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे जिसके कारण उन्हें आदिनाथ कहा जाता है । जैनकला में उनका अंकन घोर तपश्चर्या की मुद्रा में मिलता है । ऋषभनाथ के चरित का उल्लेख श्रीमद्भागवत् में भी विस्तार से आता है और यह सोचने पर वाध्य होना पड़ता है कि इसका कारण क्या रहा होगा ? भागवत में ही इस बात का उल्लेख हैं कि महायोगी भरत ऋषभदेव के शत पुत्रों में ज्येष्ठ थे और उन्हीं से यह देश भारतवर्ष कहलाया । *
भगवान् महावीर तपः प्रधान संस्कृति के उज्ज्वल प्रतीक हैं । भोगों से भरे हुए इस संसार में एक ऐसी स्थिति भी संभव है जिसमें मनुष्य का अडिग मन निरन्तर संयम और प्रकाश के सान्निध्य में रहता हो - इस सत्य की विश्वसनीय प्रयोगशाला भगवान् माहवीर का जीवन है। वर्द्धमान महावीर गौतम बुद्ध की भाँति नितान्त ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। माता-पिता के द्वारा उन्हें भी हाड़-माँस का शरीर प्राप्त हुआ था । अन्य मानवों की भाँति वे भी कच्चा दूध पीकर बढ़े थे; किन्तु उनका उदात्त मन अलौकिक था । तम और ज्योति, सत्य और अनृत के संघर्ष में एक वार जो मार्ग उन्होंने स्वीकार किया, उस पर
"येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुणश्चासीत् । येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ।। "
--भागवत ५४६..