Book Title: Tirthankar Varddhaman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 98
________________ अनेकान्त और स्याद्वाद विश्व के प्राणियों में विचार-भिन्नता दृष्टिगत होती है। यह आश्चर्य का विषय नहीं; क्योंकि व्यक्तियों का चिन्तन स्वतन्त्र और वहुमुख होना स्वाभाविक है । यदि प्रत्येक व्यक्ति दूसरे प्रत्येक व्यक्ति के भिन्न चिन्तन को विरोध की दृष्टि से देखेगा तो उसका ज्ञान अपने चिन्तन में ही सीमित रह जाएगा और वद्धमूल होने पर वह एकांगी विचार पारस्परिक द्वेष और असहिष्णुता को उत्पन्न करेगा। अतएव ज्ञान की समस्त उपासना चाहने वाले को अपने और विरोधी दोनों दृष्टिकोणों पर चिन्तन करना होगा। 'स्यात्' यह घट है ऐसा अनेकान्तविमर्श सत्य विन्दु को प्राप्त कराने में सहायक सिद्ध हो। जैनधर्म में अनेकान्त-दर्शन इसी एक भिन्न 'स्यात्' की प्रतीति में सहायता पहुंचाने वाला तात्त्विक विमर्श-पथ है। स्याद्वाद की व्युत्पत्ति स्याद्वाद-'स्यात्' और 'वाद' इन दो पदों से बना है। 'स्यात्' विधिलिङ्ग में वना हुआ तिङन्त प्रतिरूपक निपात है। न तो यह 'शायद' न सम्भावना और न कदाचित् का प्रतिपादक है किन्तु सुनिश्चित दृष्टिकोण का वाचक है (ए पर्टीक्यूलर पाइण्ट ऑफ व्ह्य)। ___ यह अनेकान्त दृष्टि सम्यग्दर्शन है, समस्याओं के समाधान का रत्न-पुलिन है। इससे भिन्न विचारों पर आक्रोश उत्पन्न नहीं होता क्योंकि आक्रोश अथवा उत्तेजना अपने लघुत्व से उत्पन्न होती है। उसके स्थिर चित्त में इन विसंवादों से चलित भाव नहीं आता प्रत्युत अर्थ की सर्वाग-पूर्णता प्रतीत कर और अधिक दृढ़ स्थैर्य प्राप्त होता है 'सापेमाहि नयाः सिता दुर्नया अपि लोकतः । स्याहादिना व्यवहारात् कुक्कुटग्रामवासितम् ॥' -सिद्धिविनिश्चय १०।२७।। वाक्येष्वनेकांतयोती गम्यम्प्रतिविशेषक : । स्यानिपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि।। -प्राप्तमीमांसा, १.३ ॥

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