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'अभिप्राय यह प्रगट होता है कि यह विषय अन्य दृष्टिकोणों से या अन्य अपेक्षाओं से अन्य अनेक प्रकार भी कहा जा सकता है।
तदनुसार राम के विषय में यों कहेंगे-स्यात् (राजा दशरथ की अपेक्षा) राम पुत्र हैं। 'स्यात्' (सीता की अपेक्षा) राम 'पति' हैं। स्यात् (लक्ष्मण की अपेक्षा) राम 'माता-भाई' हैं।
स्यात् (लवांकुश की अपेक्षा) राम 'पिता' हैं। स्यात् (राजा जनक की अपेक्षा) राम 'जामाता' (दामाद) हैं।
इस तरह 'स्यात्' शब्द लगाने से उस वड़ी भारी त्रुटि (गलती), उपर्युक्त पांच वातों में से एक ही बात कहने पर होती है, का सम्यक् परिहार हो जाता है।
यानो-राम 'पुत्र' तो हैं, किन्तु वे सर्वथा (हर तरह से) पुत्र ही नहीं हैं, वे पति, भाई, पिता, दामाद आदि भी तो. हैं। हाँ, वे राजा दशरथ को अपेक्षा से पुत्र ही हैं। इस ‘अपेक्षा' शब्द से उसके अन्य दूसरे पति, भाई, पिता, दामाद आदि सम्बन्ध सुरक्षित रहे आते हैं।
स्यात् भारत (हिमालय की अपेक्षा) दक्षिण में है।
इससे यही ध्वनि निकलती है कि भारत देश सर्वथा (हर एक तरह से सर्वथा) दक्षिण में ही नहीं है, अपितु अन्य दृष्टिकोणों से अन्य दिशाओं में भी है।
तदनुसार-'स्यात् (पर्याय की अपेक्षा-मनुष्य, पशु आदि नश्वर शरीरों की दृष्टि से) जीव अनित्य है'। इस सत्य वात की भी रक्षा हो जाती है।
इस प्रकार 'स्यात्' निपात के संयोग से संसार के सभी सैद्धान्तिक विवाद शान्त हो जाते हैं और पूर्ण सत्य का ज्ञान हो जाता है।
किसी भवन के चारों ओर खड़े होकर चार फोटोग्राफर यदि उस भवन के फोटो लें, तो उस एक ही भवन के चारों फोटो चार