Book Title: Tirthankar Varddhaman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 92
________________ विद्वानों की सम्मतियाँ हिन्दू विश्व विद्यालय बनारस के दर्शन विषय (फिलासफी) के भूतपूर्व प्रधान अध्यापक श्री फणिभूषगजी अधिकारी का कथन है "जनधर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त को जितना गलत समझा गया है उतना किसी अन्य सिद्धान्त को नहीं, यहां तक कि शंकराचार्य भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय किया। यह बात अल्पज्ञ पुरुष के लिये क्षम्य हो सकती थी, किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मैं भारत के इस महान् विद्वान के लिए तो अक्षम्य ही कहूँगा, यद्यपि मैं इस महपि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता है। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इम धर्म के दर्शन-शास्त्र के मूल ग्रन्थों के अध्ययन करने की परवाह नहीं की।" श्री महामहोपाध्याय सत्या सम्प्रदायाचार्य प. स्वामी राममिश्र जी शास्त्री प्रोफेसर संस्कृत कालेज, वाराणसी लिखते हैं "मैं कहाँ तक कहूँ, बड़े-बड़े नामी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जो जनमत का खण्डन किया है वह ऐमा किया है जिसे सुन-देख हमी आती है, स्याद्वाद यह जैनधर्म का एक अभेद्य किला है, उसके अन्दर वादी-प्रतिवादियों के मायामय गोले नहीं प्रवेश कर सकते। जैनधर्म के सिद्धान्त प्राचीन भारतीय तत्व-ज्ञान और धार्मिक पद्धति के अभ्यासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं । इस स्याद्वाद से सर्व सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है।" इणिया ऑफिस लन्दन के प्रधान पुस्तकालयाध्यक्ष गं. थामस के उद्गार बड़े महत्वपूर्ण हैं; वे कहते हैं कि "न्यायशास्त्र का स्थान बहुत ऊँचा है । स्याद्वाद का स्थान बड़ा गम्भीर है। वह वस्तुओं को भिन्न-भिन्न परिस्थितियों पर अच्छा प्रकाश डालता है।" भारतीय विद्वानों में विख्यात निष्पक्ष आलोचक एवं 'सरस्वती' पत्रिका के सम्पादक स्व. पं. महावीर प्रसाद दिया लिखते हैं "प्राचीन दर्जे के हिन्दू धर्मावलम्बी बड़े-बड़े शास्त्री तक अब भी नहीं जानते कि जैनियों का स्यावाद किस चिड़िया का नाम है । धन्यवाद है जर्मनी,

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