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फांस और इग्लैंड के कुछ विद्यानुरागी विशेषज्ञों को जिनकी कृपा से इस धर्म के अनुयायियों के कीर्ति-कलाप की खोज की ओर भारत वर्ष के इतर जनों का का ध्यान आकृष्ट हुआ। यदि ये विदेशी विद्वान् जनों के धर्म-ग्रन्थों की आलोचना न करते, उनके प्राचीन लेखकों की महत्ता प्रगट न करते तो हम लोग शायद आज भी पूर्ववत् अज्ञान के अन्धकार में ही डूबे रहते'। महात्मा गाँधी जी लिखते हैं
"मेरा अनुभव है कि अपनी दृष्टि से मैं सदा सत्य ही होता हूँ, किन्तु मेरे ईमानदार आलोचक तब भी मुझमें गलती देखते हैं । पहले मैं अपने को ही सही और उन्हें अज्ञानी मान लेता था, किन्तु अब मैं मानता है कि अपनीअपनी जगह हम दोनों ठीक हैं, कई अंघों ने हाथी को अलग-अलग टटोलकर उसका जो वर्णन किया था वह दृष्टान्त अनेकान्तवाद का सबसे अच्छा उदाहरण है । इसी सिद्धान्त ने मुझे यह बतलाया है कि मुसलमान की जाँच मुस्लिम दृष्टिकोण से तथा ईसाई की परीक्षा ईसाई दृष्टिकोण से की जानी चाहिये । पहले मैं मानता था कि मेरे विरोधी अज्ञान में हैं। आज मैं विरोधियों की दृष्टि से भी देख सकता हूँ। मेरा अनेकान्तवाद सत्य, और अहिंसा-इन युगल सिद्धान्तों का ही परिणाम है।" उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री स्व. डॉ. सम्पूर्णानन्दजी लिखते हैं___ "अनेकान्तवाद या सप्तभंगीन्याय जैन-दर्शन का मुख्य सिद्धान्त है। प्रत्येक पदार्थ के जो सात अन्त या स्वरूप जैन शास्त्रों में कहे गये हैं, उनको ठीक रूप में स्वीकार करने में आपत्ति हो सकती है। कुछ विद्वान् भी सात में कुछ को गौण मानते हैं। साधारण मनुष्य को वह समझने में कठिनाई होती है कि एक ही वस्तु के लिए एक ही समय में है और नहीं है, दोनों बातें कैसे कही जा सकती हैं, परन्तु कठिनाई के होते हुए भी वस्तुस्थिति तो
मी ही है।"
श्री . एस. वी. नियोगी एम. ए., एल.एल.एम., एल.सी. भूतपूर्व चीफ जस्टिस नागपुर हाईकोर्ट तथा उपकुलपति नागपुर विश्वविद्यालय, लिखते है--
"जैनाचार्यों की यह वृत्ति अभिनन्दनीय है कि उन्होंने ईश्वरीय आलोक (Revelation) के नाम पर अपने उपदेशों में ही सत्य का एकाधिकार नहीं बताया, इसके फलस्वरूप उन्होंने साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता के दुर्गणों को दूर कर दिया। जिसके कारण मानव-इतिहास भयंकर द्वन्द्व और