Book Title: Tirthankar Varddhaman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 58
________________ ५८ मोहनीय की शेष २१ प्रकृतियों की शक्ति का क्रमशः ह्रास होता जाता है, पूर्ण क्षय वारहवें गुण-स्थान म हो जाता है। उम ममय आत्मा के समस्त क्रोध, मान, काम, लोभ, माया, द्वेष आदि कषाय (कलषित विकृत भाव) समल नष्ट हो जाते हैं, आत्मा पूर्ण शद्ध वीतराग इच्छा-विहीन हो जाता है. तदनन्तर दूसरा शुक्ल ध्यान (एकत्व वितर्क) होता है जिससे ज्ञान-दर्शन के आवरक तथा बलहीन कारक (ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय) कर्म क्षय हो जाते हैं तब आत्मा में पूर्ण ज्ञान. पूर्ण दर्शन और पूर्ण बल का विकास हो जाता है। जिनको दूसरे शब्दों में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख,अनन्त वल कहते हैं। इन गणों के पूर्ण विकसित हो जाने से आत्मा पूर्ण ज्ञाता-इप्टा बन जाता है। यह आत्मा का १३ वाँ गण-स्थान कहलाता है। क्षपक श्रेणी के गुण-स्थानों का समय अन्तम हर्न है, उसी में योगी मर्वज हो जाता है। वीतराग सर्वत्र हो जाना ही आत्मा का जीवन-म क्त परमात्मा (अर्हन्त) हो जाना है । आत्मोन्नति या आत्मशुद्धि का इतना बड़ा कार्य होने में इतना थोड़ा समय लगता है; किन्तु यह महान कार्य होता तभी है जर्वाक आत्मा तपश्चरण के द्वारा शुक्ल ध्यान के योग्य वन च का हो। तेरहवें गण स्थान में तीसरा शक्ल घ्यान (सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती) होता है। आत्मोन्नति या आत्मशुद्धि अथवा वीतराग, सर्वज्ञ, अर्हन्त, जीवन्मुक्त परमात्मा बनने का यही विधि-विधान तीर्थंकर महावीर को भी करना पड़ा। १२ वर्ष ५ मास १५ दिवस तक* तपश्चर्या करने के अनन्तर उन्होंने प्रथम शक्ल ध्यान की योग्यता प्राप्त की, तत्पश्चात् पहिले लिखे अनुसार उन्होंने मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शना* 'गमय छदुमन्थनं बारमवामाणि पचमासेय । पण्णरसाणि दिणाणि य तिरयणसुद्धो महावीरी ।। -जयधवला. भाग १, पु. ८१.

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