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नामक श्मसान को एकान्त-शान्त प्रदेश जानकर वहाँ आत्मध्यान • करने ठहर गये। जव रात्रि का समय हुआ तो वहाँ पर 'स्थाणु' नामक एक रुद्र आया। उस स्थाणु रुद्र ने ध्यान-मग्न तीर्थंकर महावीर को देखा। देखते ही उसने उन्हें ध्यान से विचलित करने के लिए घोर उपमर्ग करने का विचार किया।
नदनसार अपने सिद्ध विद्यावल से अपना भयानक विकराल म्हप बनाया और कानों के पर्दे फाड़ देने वाला अट्टहास किया। अपने मुख में अग्नि-ज्वाला निकाल कर ध्यानारूढ़ तीर्थंकर महावीर की ओर झपटा। भूत-प्रेतों के भयानक नत्य दिखलाये । सर्प, सिंह, हाथी आदि के भयानक शब्द किये। ल, अग्निवर्षा की। इत्यादि अनेक उपद्रव तीर्थंकर को भयभीत करने तथा आत्मध्यान से चलायमान करने के लिए किए; परन्तु उसे कुछ भी सफलता न मिली । न तो परम तपस्वी वढेमान रंचमात्र भयभीत हए और न ही उनका चित्त ध्यान से चलायमान हुआ। वे उसी प्रकार अपने अचल आसन से ठहर रहे, जिस प्रकार भयानक आँधी के चलते रहने पर भी पर्वत ज्यों-का-त्यों खड़ा रहता है। अन्त में अपना घोर उपसर्ग विफल होते देख, स्थाण रुद्र चपचाप चला गया। .
कंवल्य
जगत् में कोई भी पदार्थ वहुमूल्य एवं आदरणीय वनता है तो वह वहुत परिश्रम तथा कष्ट सहन करने के पश्चात् ही वना करता है । गहरी खुदाई करने पर मिट्टी-पत्थरों में मिला हआ भा रत्न-पाषाण निकलता है, उसको छैनी, टाँकी, हथोड़ों की मार सहनी पड़ती है, शाण की तीक्ष्ण रगड़ खानी पड़ती है, तव कहीं झिलमिलाता हुआ वहुमूल्य रत्न प्रगट होता है। अग्नि के भारी सन्ताप में वार-बार पिघलकर सोना चमकीला बनता है, तभी संसार उसका आदर करता है और पूर्ण मूल्य देकर उत्कंठा मे खरीदता है।
आत्मा अनन्त वैभव का पुंज है, उसके समान अमूल्य पदार्थ संसार में एक भी नहीं है। रत्न की तरह उसका वैभव भी अनादि