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महावीर तीर्थंकर के इस दीर्घकालीन मौन के मल कारण पर समवशरण के व्यवस्थापक सौधर्म इन्द्र ने गम्भीरता से विचार किया, तव अवविज्ञान से उसे ज्ञात हुआ कि समवशरण में अब तक ऐसा महान् प्रतिभाशाली विद्वान् उपस्थित नहीं हुआ जो कि तीर्थकर के गढ़, गम्भीर दिव्य उपदेश को सुनकर उसे अपने हृदय में धारण कर सके और उसको प्रकरणबद्ध करके श्रोताओं की जिज्ञासा का यथार्थ समाधान कर सके, तीर्थंकर का उपदेश सवको समझा सके । इस प्रकार का गणधर वनने योग्य विद्वान् मनि समवशरण में न होने के कारण तीर्थकर को वाणी मुखरित न हुई।
तदनन्तर उसनं अवधिज्ञान से यह भी जाना कि इस समय इन्द्रभूति गौतम तीर्थंकर का गणधर वननं योग्य विद्वान् है, किन्तु वह तीर्थंकर का श्रद्धालु नहीं है, अतत्त्व-श्रद्धानी है। हाँ, यदि किसी प्रकार वह तीर्थंकर महावीर के सम्पर्क मे आ जावे तो तीर्थकर का श्रद्धालु भक्त बनकर गणधर वन सकता है। __ ऐसा विचार कर इन्द्र ने एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप बनाया और वह वेद-वेदांग के ज्ञाता, महान् प्रतिभाशाली विद्वान्, ५०० विद्वान् शिष्यों के गुरू इन्द्रभूति गौतम के पास पहुंचा और इन्द्रभूति गौतम मे बोला कि
_ 'मेरे गुरु तीर्थंकर महावीर ने, जो कि सर्वज्ञ हैं. मुझे निम्नलिखित श्लोक सिखाया है, उसका अर्थ भी मुझे बताया था, किन्तु मैं भूल गया है। आप बहुत बड़े विद्वान् हैं कृपा करके उस श्लोक का अर्थ मुझे समझा दीजिये । श्लोक इस प्रकार है
'काल्यं द्रव्यवट्कं, नवपद सहितं, जीववट्काय लेश्याः । पंचान्ये चास्तिकाया, बतसमितिगति नचारित्रभेदाः ॥ इत्येतन्मोसमूलं त्रिभुवनमहितः प्रोक्तमहभिरीशः । प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यःसबै शुषदृष्टिः'