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हुआ । उनकी भाषा दिव्य ध्वनिरूपिणी थी, जिसे सभी उपस्थित श्रोता समझते थे। जहाँ-जहाँ तीर्थंकर भगवान विहार करते थे वहाँवहाँ धर्मपीयूषपाथियों को उपदेश प्रदान करते थे ।*
उस धर्म-प्रचार से अहिंसा का प्रभावशाली प्रसार हुआ, पशुयज्ञ होने सर्वत्र वन्द हो गये। हिंसा कृत्य और माँस-भक्षण से भी जनता घृणा करने लगी। हिंसक लोग तीर्थंकर महावीर का उपदेश मुनकर स्वयं अहिंसक बन गये ।
तीर्थंकर महावीर का जहाँ भी मंगलमय विहार हुआ, वहाँ के शासक, मंत्री, सेनापति, पुरोहित, विद्वान् तथा अन्य साधारणजन उनके अनुयायी भक्त बनते गये। जिस तरह सूर्य के उदय से अन्धकार हटता जाता है उसी तरह तीर्थंकर महावीर के उपदेश से अज्ञान, भ्रम, अधर्म, अन्याय, अत्याचार, हिसा-कृत्य आदि पापाचार साधारण जन क्षेत्र से दूर होता गया और निरपराध मूक पशु जगत् को संरक्षण मिला।
'इच्छाविरहितः सोऽपि भव्यपुण्यदयेरितः । विहारमकरोद् देशानार्यान् धर्मोपदेशयन् । काश्यां काश्मीरदेशे कुरुप च मगधे कौशले काममणे कच्छे काले कलिगे जनपदहिने जांगलान्ने कुरादी। किष्किन्धे मल्लदेणे मुकृतिजनमनस्तोपदे धर्मवृष्टिं कुर्वन् गाम्ना जिनेन्द्रो विहनि नियतं तं यजेऽहं विकालम् ।। पांचाले करने वाऽमनपदमिहिरोभद्र चदि दणाणं-- वंगांगान्ध्रोलिकोशीनर मलविदर्भेष गौडे मुमो शोनांग रश्मिजालादमृमिव मभां धर्मपीयूषधारा मिचन् योगाभिगमः परिणभयति च स्वान्तद्धिं जनानाम् ।।'--
--प्रतिष्ठापाठ ६/६१. 'गौतमोऽपि ततो राजन? गतः काश्मीरके पुनः । महावीरेण दीक्षां च घने जनमतेप्मिताम'।'
-वैदिक ग्रन्थ श्रीमाल पुराण, प्र. ७३ (जैनतत्व-प्रकाण) (गौतम नामक एक ब्राह्मण ने तीर्थंकर महावीर मे जैनधर्म की दीक्षा लेकर इच्छित प्रथं को सिद्ध किया।)