Book Title: Tirthankar Varddhaman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 71
________________ शिष्य-परम्परा के जैन साधु पिहितास्रव' से साधु दीक्षा ली। जैन शास्त्रों के अनुसार समस्त वस्त्र त्यागकर वे नग्न हुए और केशलोंच तथा हाथों में भोजन करना आदि जैन साधु का आचरण कुछ दिन तक करते रहे । जव उन्हें जैन साधु की चर्या कठिन प्रतीत हुई, तव उन्होंने गेरुए वस्त्र पहिनकर अपना अलग पन्थ चलाया जिसका नाम मध्यम मार्ग पड़ा। ____-हे सारिपुत्र, मेरे तप की ये त्रियाएँ थीं-मैं निर्वस्त्र रहा, मैंने लोकाचार को त्याग दिया. मैंने हाथों में भोजन लिया, अपने लिय लाया हुआ भोजन नहीं किया. अपने निमित्त से बना भोजन नहीं किया, भोजन का निमन्त्रण स्वीकार नहीं किया, थाली में भोजन नहीं किया, मकान की ड्योढ़ी (विद इन ए ऐशहोल्ड) में भोजन नहीं किया, खिड़की से नहीं लिया, मसल से कटने के स्थान पर भोजन नहीं लिया, न गभिणी स्त्री से लिया, न वच्चे को दूध पिलाने वाली से लिया, न भोग करने वाली से लिया, न वहाँ से लिया जहां कृत्ता पास खड़ा था, न वहाँ से लिया जहाँ मक्खियों भिन-भिना रही थीं, न मछली, न मांस, न मदिरा, न सड़ा मांस खाया, न तुम का मैला पानी पिया । मैंने एक घर से भोजन लिया, एक ग्रास भोजन लिया या मैन दो घर से भोजन लिया, दो ग्राम भोजन लिया। मैने कभी दिन में एक वार भोजन किया, कभी पन्द्रह दिन में भोजन किया। मैंने मम्तक, दाढ़ी व मठों के केशलोंच किये । उस केशलोच की क्रिया को चाल रखा। में एक बद पानी पर भी दयाल रहता था। क्षुद्र जीव की हिमा भी मरे द्वारा न हो ऐसा में सावधान था । मिग्पिामणाहनिन्थ मग्यतीरे पलामणयग्यो । पिहिनामवग्म मिम्मी महामुद्रो बुकिनमणी ।।' --दर्णनमार ६ "तवास्म में इदं सारिपुन, तपम्मिताय हानि, प्रचलको होमि, मनाचार्ग हन्यापलबनो, न एहिभन्तिको नतिभवन्तिको, नाभिहिनं न उदिधम्मकतं न निमन्तनं मादयामि, मांत कुम्भिमनपग्रिगण्हामि, न एलकमन्तरं, न दाइमन्न, न ममलमंतर, न द्विग्नं भजमानानं, न गभनिया, न पापमानाय, न पुग्मिन्नग्गताय, न मंकितांमु. न यन्थ मा उपट्टिता होति, न यत्थ म उपट्टिता हानि, य यन्य भक्मिका मण्डमण्डचाग्निी, न मन्दं न मांस, न मुरं, न भरेयं, न मोदकं पिवामि, मो कागरिको वा हामि एकालापिको, दागारिको वा होमि दालोपिको....................... 'मनार्गारको वा हामि मनालामिको किम्मापि

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