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दो अन्य महान् विद्वान् भ्राता अग्निभूति और वायुभूति भी आपनी शिप्य-मंडली सहित तीर्थंकर महावीर का उपदेश श्रवण करने समवशरण में आये और वे भी महावीर के विनीत शिष्य बनकर गणधर वन गये।
जव तीर्थंकर महावीर का मर्मस्पर्शी उपदेश जनता ने सुना तो धर्म का सुन्दर सत्य स्वरूप उसे ज्ञात हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि पशु-यज्ञ के विरोध में एक व्यापक लहर फैल गई। यज्ञ कराने वाले पुरोहितों के तथा यज्ञ करने वाले यजमानों के हृदय में उल्लेखनीय परिवर्तन आया और वे पशु-यज के हिसक कृत्य से घृणा करने लगे।
राजगही (मगधदेश) का नरेश श्रेणिक (विम्बसार), तीर्थंकर महावीर का उपदेश सुनकर उनका अनुयायी परम भक्त बन गया।
इस तरह श्री वीर प्रभु की वाणी प्रारम्भ से ही अच्छी प्रभावशालिनी सिद्ध हुई। ___ कुछ दिनों पश्चात् तीर्थंकर महावीर वहाँ से विहार कर गये। वे जहाँ भी ठहरे, वहाँ उनका नवीन समवशरण* (धर्मसभा-मण्डप) वना। वहाँ पर भी उनका कई दिन प्रभावशाली धर्म-उपदेश हुआ, तदनन्तर वहाँ मे भी वे विहार कर गये ।
श्री महावीर तीर्थकर ने इच्छारहित होकर भी भव्यजनों के प्रति सहज दया से प्रेरित होकर अथवा उनके प्रवल पुण्ययोग से काशी, कश्मीर, कुरु, मगध, कोसल, कामरूप, कच्छ, कलिग, कुरुजांगल, किष्किन्धा, मल्लदेश, पांचाल, केरल, भद्र, चेदि, दशार्ण, वंग, अंग, आन्ध, उशीनर, मलय, विदर्भ, गौड़ आदि देशों में धर्म-प्रभावना की, देशनार्थ प्रवचन किया। एतावता अनेक प्रान्तों तथा देशों में तोर्यकर महावीर का मंगल विहार हुआ और महान् धर्म-प्रचार
• 'पीसमायां ममम्येत्य श्रीवीरं जिननायकम ।
पूजयामास पूज्योऽयभस्तावीच्च पुनः पुनः ।।'
-मन्त्र चुडामणि ११/१५