Book Title: Tirthankar Varddhaman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 50
________________ न वन जाऊँ, तब तक विश्व-कल्याण नहीं कर सकता। अतः मोह ममता के कीचड़ से बाहर निकल कर मुझे आत्मविकास करना चाहिये। इस प्रकार वैराग्य-भावना वर्द्धमान के हृदय में जाग्रत हुई, उसी समय लौकान्तिक देव उनके सामने आ खड़े हुए और वर्द्धमान से कहा कि 'आपने जो संसार की मोह-ममता तथा विषय-भोगों से विरक्त होकर संयम धारण करने का विचार किया है, वह वहुत हितकारी है। आप तप, त्याग, संयम के द्वारा ही अजर-अमर पद प्राप्त करेंगे; विश्व-जाता-दृष्टा वनेंगे और विश्व का उद्धार करेंगे।' लौकान्तिक देवों की वाणी सुनकर वर्द्धमान का वैराग्य और अधिक प्रगाढ़ तथा अविचल हो गया, अतः उन्होंने कुण्डलपुर का राजभवन छोड़कर एकान्त वन में आत्म साधना करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। ब्राह्मणों को राजा सिद्धार्थ ने किमिच्छक दान दे कर मनुष्ट किया। उमी समय इन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ, तव इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान में अन्तिम तीर्थकर वर्द्धमान को वैराग्य-भावना का समाचार जाना; अतः वह देव गण के माथ तत्काल कुण्डलपुर के राजभवन में आ पहुंचा। वहाँ उसने आकर वहुत 'हर्ष-उत्सव' किया। जव त्रिशला रानी को राजकुमार वर्द्धमान के मंसार से विरक्त होने का समाचार ज्ञात हुआ तव वह पुत्र-स्नेह में विह्वल हो गयी। उसके हृदय में विचार आया कि 'राजसुख में पला हआ मेरा पुत्र वनपर्वतों में नग्न रहकर सर्दी, गर्मी के कष्ट किस तरह सहन करेगा? वन-पर्वतों की कँटीली भूमि कंकरीली भमि पर अपने कोमल नंगे पैरों से कैसे चलेगा? नंगे सिर धप, ओस, वर्षा में कैसे रहेगा? कहाँ कठोर तपश्चर्या! और कहाँ मेरे पुत्र का कोमल शरीर !! ऐसा सोचते ही विशला मूच्छित हो गयी। परिवार के व्यक्तियों ने तथा दासियों ने शीतल उपचार से उसकी मा दूर की। आये हुए देवों ने माता 'दीमोन्मुखस्तीर्थकरो जनेभ्यः । किमिच्छकं दानमहो ! ददो यः॥' -प्रति. १०/१

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