Book Title: Tirthankar Varddhaman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 53
________________ ५३ । उस समय भोजन-पान बन्द रहता ही था; किन्तु इसके साथ बाहरी . वातावरण का भी अनुभव न हो पाता था शीत ऋतु में पर्वत पर या नदी के तट पर अथवा किसी खुले मैदान में बैठे रहते थे, उन्हें भयंकर शीत का भी अनुभव नहीं होता था । ग्रीष्म ऋतु में वे पर्वत पर बैठे ध्यान करते थे, ऊपर से दोपहर की धूप, नीचे से गरम पत्थर, चारों ओर से लू (गरम हवा ) उनके नग्न शरीर को तपाती रहती थी; किन्तु तपस्वी वर्द्धमान को उसका भान नहीं होता था । वर्षा ऋतु में नग्न शरीर पर मूसलाधार पानी गिरता था, तेज हवा चलती थी परन्तु महान् योगी तीर्थंकर महावीर अचल आसन से आत्मचिंतन में रहते थे । वन में सिंह दहाड़ रहे हैं, हाथी चिंघाड़ रहे हैं, सर्प फुंकार रहे हैं; परन्तु परम तपस्वी महावीर को उसका कुछ भान ही नहीं है । प्रथम तपस्वी महावीर ने कुल नामक नगर में नृपति दानतीर्थ वकुल' के राज प्रासाद में आहार ग्रहण किया था । जव वे आत्मध्यान से निवृत्त हुए और शरीर को कुछ भोजन देने का विचार हुआ तो निकट के गाँव या नगर में चले गये । वहाँ यदि विधि-२ -अनुसार शुद्ध भोजन मिल गया तो निःस्पृह भावना से थोड़ा-सा भोजन कर लिया और तपस्या करने वन, पर्वत पर चले गये । कहीं दो दिन ठहरे, कहीं चार दिन, कहीं एक सप्ताह; फिर वहाँ से विहार करके किसी अन्य स्थान को चले गये । यदि सोना आवश्यक समझते, तो रात को पिछले पहर कुछ देर के लिए, एक करवट से सो जाते । इस तरह वे आत्मसाधना के लिए अधिक-से-अधिक और शरीर की स्थिति के लिए कम-से-कम समय लगाते थे । १ 'गिरिकन्दर दुर्गेषु ये वर्मान्ति दिगम्बराः पाणिपात्रपुटाहारानं यन्तिपरमां गतिम्' । - यांगि भक्ति २. २ कुलाभिधानधरणीपालंगनुकलवृत्ति पडियरिनांवं ।' - प्राण कवि, वर्धमान पु. १५ / १४. 'धर्मो महात्मा बकुलाभिधानः प्रवतितस्तैरेव दानधर्मः ।।' —वरांग चरित्र, पृ. २७३ । चामुण्डरायकृन, वर्धमान पुराण २६१

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