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उदक को उत्तर
२५५ और प्ररूपते हैं, वह निश्चय ही श्रमण-निर्गथं नहीं हैं; कारण कि, वह यह निरति भाषा बोलते हैं-वह अनुतापित भाषा बोलते हैं । और, श्रमण-ब्राह्मणों पर झूठा आरोप लगाते हैं । यही नहीं, बल्कि प्राणी-विशेष की हिंसा को छोड़ने वाले को भी वे दोषी ठहराते हैं; क्योंकि प्राणी संसारी है । और, वे त्रस मिटकर स्थावर होते हैं तथा स्थावरकाय त्रस होते हैं। संसारी जीवों की यही स्थिति है । इस कारण जब वे त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं तब त्रस कहलाते हैं और तभी त्रस-हिंसाका जिसने प्रत्याख्यान किया है, उसके लिए वे अघात्य होते हैं।"
फिर उदक ने पूछा-“हे आयुष्मान् गौतम ! आप प्राणी किसे कहते हैं ?"
गौतम-"आयुष्मान उदक ! त्रस-जीव उसको कहते हैं जिनको त्रसरूप पैदा होनेके कर्मफल भोगने के लिए लगे होते हैं । इसी कारण उनको वह नामकर्म लगा होता है। ऐसा ही स्थावर-जीवों के सम्बन्ध में समझा जाना चाहिए । जिसे तुम त्रसभूत प्राण कहते हो उसे मैं 'त्रसप्राण' कहता हूँ और जिसे हम 'त्रसप्राण' कहते हैं, उसे ही तुम त्रसभूत प्राण कह रहे हो । तुम एक को ठीक कहते हो और दूसरे को गलत, यह न्याय-मार्ग नहीं है ?"
__ "कोई एक हल्के कर्म वाला मनुष्य हो, और वह प्रव्रज्या पालने में असमर्थ है, उसने पहले कहा हो कि मैं मुंडित होने में समर्थ नहीं हूँ। गृहवास त्याग कर मैं अनगारपना स्वीकार नहीं कर सकता। पर, वह गृहवास से थक कर प्रवज्या लेकर साधुपना पालता है । पहले तो देशविरति-रूप श्रावक के धर्म का वह पालन करता है और अनुक्रम से पीछे श्रमण-धर्म का पालन करता है । वह इस प्रकार का प्रत्याख्यान करता है और कहता है कि. राजादिक के अभियोग करी त्रस-प्राणी को घात से हमारा व्रत भंग नहीं होगा।
"त्रस मर कर स्थावर होते हैं। अतः त्रस-हिंसा के प्रत्याख्यानी के
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