Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 729
________________ भक्त राजे ६६१ घोड़े पर आरूढ़ राजा वहाँ भी आया और उसने जब मरे हुए मृगों के निकट हो उस अनागार को देखा तो मुनि को देख कर वह भयग्रस्त हो गया । राजा अविलम्ब घोड़े से उतरा और मुनि के निकट जाकर उनकी वंदना करता हुआ क्षमायाचना करने लगा । उस अनागार ने राजा को कुछ भी उत्तर नहीं दिया। मुनि के उत्तर न देने से राजा और भी भयग्रस्त हुआ और उसने अपना परिचय चताते हुए कहा – “हे भगवन् ! मैं संजय - नामका राजा हूँ । आप मुझे उत्तर दें; क्योंकि कुपित हुआ अनागार अपने तेज से करोड़ो मनुष्यों को भस्म कर देता है । " राजा के इन वचनों को सुनकर उस मुनि ने कहा - " हे पार्थिव ! तुझे अभय है। तू भी अभय देने वाला हो । अनित्य जीवलोक में तू हिंसा में क्यों आसक्त हो रहा है ? "हे राजन् ! यह जीवन और रूप जिसमें तू मूर्छित हो रहा है विद्युत्सम्पात के समान अति चंचल है ! परलोक का तुझको बोध भी नहीं है । "स्त्री-पुत्र -मित्र और बांधव सब जीते के साथी हैं और मरे हुए के साथ नहीं जाते | " हे पुत्र ! परम दुखी होकर मरे हुए पिता को लोग घर से निकाल देते हैं । इसी प्रकार मरे हुए पुत्र को पिता तथा भाई को भाई घर से निकाल देता है | "फिर हे राजन उस व्यक्ति द्वारा उपार्जित वस्तुओं का दूसरे ही लोग उपभोग करते हैं । " मनुष्य तो शुभ अथवा अशुभ अपने कर्मों से ही संयुक्त परलोक में जाता है । " उस अनागार मुनि के धर्म को सुनकर वह राजा उस अनागार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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