Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 741
________________ सूक्ति-माला आचाराङ्गसूत्र सटीक ( २ ) पहूय एजस्स दुगुञ्छणाए । आयंकसी 'अहियं' ति नच्चा ॥ जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाएइ, जे बहिया जाणइ से अत्यं जाइ, एयं तुल्लं अन्नेसिं । इह सन्तिगया दविया नाचकंखन्ति जीविउ ६७३ --पत्र ६८-२ - मनुष्य विविध प्राणों की हिंसा में अपना अनिष्ट देख सकने में समर्थ है, और वह उसका त्याग करने में समर्थ है। जो मनुष्य अपने दुःख को जानता है, वह बाहर के दुःख को भी जानता है, जो बाहर का दुःख जानता है, वह अपने दुःख को भी जानता है । शांति प्राप्त संयमी ( दूसरे की हिंसा कर के) असंयमी जीवन की इच्छा नहीं करते । ( ३ ) से वसुमं सञ्च समण्णागयपण्णाणेणं, अप्पा कर णिज्जं पावं कम्मं को असि । - पत्र ७१-२ - संयमधनी साधक सर्वथा सावधान और सर्वप्रकार से ज्ञानयुक्त होकर न करने योग्य पापकर्मों में यत्न न करें । ( ४ ) जे गुणे से मूलद्वाणे, जे मूलट्ठासे से गुणे । इति से गुणड्डी महता परियाने वसे पमत्ते, तं जहा - माया से, पिया मे, भाया मे, भइणी मे, भज्जा में, पुत्ता मे, धूया मे, सुरहा मे, सहिसयासंगंथसंधुया मे, विवितोवगरण परियट्टण भोयणच्छायणं मे इच्चत्थं गटिए लोए वसेपमत्ते... ॥ - पत्र ८९-१ ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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