Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 777
________________ सूक्ति-माला ૭૨ होता है, माया से मित्रता का नाश होता है और लोभ सभी सद्गुणों का नाश करने वाला है । ( १०३ ) उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे । मायं च यज्जवभावेश, लोभं संतोसओ जिणे ॥ ३६ ॥ - उ० ८, पत्र २३३-१ - शान्ति से क्रोध को, नम्रता से, मान को, सरलता से माया को, एवं संतोष से लोभ को जीत कर समूल नष्ट करना चाहिए । ( १०४ ) श्रणिग्गहीश्रा, माया अ लोभो अ पवड्ढमाणा । कोहो अमाणो चत्तारि एए कसिया कसाया सिंचित्ति मूलाई पुणब्भवस्स ॥ ४० ॥ W - अ० ८, पत्र २३३-१ -अनिगृहीत क्रोध और मान, तथा प्रवर्द्धमान माया और लोभ, ये चारों ही क्लिष्ट-कपाय पुनर्जन्म-रूप विपवृक्ष की जड़ों का सिंचन करने वाले हैं । ( १०५ ) अपत्ति जेण सिश्रा, श्रासु कुप्पिञ्ज वा परो । सव्वसो तं न भासिज्जा, भासं हिश्रगामििं ॥ ४८ ॥ - अ० ८, पत्र २३४-२ जिस भाषा के बोलने से अप्रीति हो और दूसरा क्रुद्ध हो, ऐसी उभयलोक विरुद्ध अहितकारिणी भाषा का भाषण सभी प्रकार से त्याज्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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