Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 775
________________ ७०७ सूक्ति-माला तं अप्पणा न गिणहंति, नो वि गिण्हावए परं । अन्नं वा गिण्हमाणं वि, नाणु जाणंति संजया ॥१४॥ ---अ० ६, पत्र १९७-२ -पदार्थ सचित्त हो या अचित्त, अल्पमूल्य का हो या बहुमूल्य, दंतशोधन ( तृण ) मात्र पदार्थ भी जिस गृहस्थ के अधिकार में हो, उसकी आज्ञा लिए बिना न तो स्वयं ग्रहण करते हैं, । दूसरों से करवाते हैं और न दूसरों द्वारा ग्रहण किया जाना नच्छा समझते हैं। जा य सच्चा अवत्तव्या, सच्चामोसा अजा मुसा । जा य बुद्ध हिं नाइन्ना, न तं भासिञ्ज पन्नवं ।।२।। -अ०७, उ० २, पत्र २१३-१ -जो भाषा सत्य है परन्तु (सावध होने से ) बोलने योग्य नहीं है, जो सत्या-मृषा है, जो मृषा है, (जो असत्यमृषा भाषा ३) तीर्थकर द्वारा अनाचरित है, उस भाषा को प्रज्ञावान न बोले। (१८) तहेव काणं काणत्ति, पंडगं पंडगति वा । वाहिग्रं वावि रोगित्ति, तेणं चोरति नो वए ।।१२।। -अ० ७, उ० २, पत्र २१५-१ --काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोरी करने वाले को चोर न कहे । भासाइ दोसे य गुणे य जाणिया, तीसे अ दुढे परिवज्जए सया । छसु संजए सामणिए सया जय, वइज्ज बुद्ध हियमाणुलोमियं ॥५६॥ -अ० ७, उ० २, पत्र २२३-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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