Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 776
________________ ७०८ __तोर्थकर महावीर -षट्काय के जीवों की रक्षा करने वाला, तथा स्वीकृत संयम में पुरुषार्थ रत रहने वाला सम्यक ज्ञानधारी मुनि; पूर्व कथित भाषा के गुण और दोषों को भली-भाँति जानकर स्व-पर वंचक दुष्ट भाषा को तो छोड़ दे और काम पड़ने पर केवल स्वपर हितकारी एवं सुमधुर भाषा को हो बोले । (१००) तेसिं अच्छण जोएण, निच्चं होयव्वयं सिया। मणसा कायवक्केण, एवं हवइ संजए ॥३॥ --अ०८, पत्र २२७-२ -मन, वचन और काया में किसी एक के द्वारा भी किसी प्रकार के जीवों की हिंसा न हो, ऐसा व्यवहार ही संयमी (साधु) जीवन है। नित्य ( ऐसा) अहिंसा-व्यापार वर्तना उचित है। (१०१) से जाणम जाणं वा, कट टु अाहम्मिग्रं प यं । संबरे खिप्पमप्पाणं, बी ग्रं तं न समायरे ॥३१।। -अ०८, पत्र २३२-२ -जानते हुए या न जानते हुए यदि कोई अधार्मिक कार्य बन पड़े तो शीघ्र ही उस पाप से अपनी आत्मा का संवरण करे और भविष्य में वह कार्य कभी न करे। ( १०२ ) कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोभी सव्वविणासणो ॥ ३८ ॥ -दशवैकालिक अ०८, पत्र २३३-१ -क्रोध से प्रीति का नाश होता है, मान से विनय का नाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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