Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 774
________________ ७०६ तीर्थकर महावीर -जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, जीवाजीव को नहीं जानता वह संयम को किस प्रकार जानेगा ? तवे तेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे । अायारभावतेणे य, कुम्वइ देवकिविसं ॥४६॥ -अ० ५, उ० २, पत्र १८९-२ -जो तप का चोर, वचन का चोर, रूप का चोर, आचार का चोर, भाव का चोर होता है, वह अगले जन्म में अत्यन्त नीच योनि किल्विष-देवों में उत्पन्न होता है। तथिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसि । अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो ॥८ --अ० ६, पत्र १९६-२ --(अठाहरह ठाणों में ) प्रथम स्थानक अहिंसा महावीरस्वामी ने उपदेशित किया । अहिंसा सब सुख देने वाली है। अतः सर्व भूतों को इसका संयम रखना चाहिए । अप्पणट्टा परट्टा वा कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मुसं वूश्रा, नोवि अन्नं वयावए ॥११॥ ---अ०६, पत्र १९७-१ -क्रोध, मान, माया, लोभ तथा भय के कारण से अपने लिए तथा दूसरों के लिए साधु न तो स्वयं मृषा भाषण करे और न करवाए। चित्तमंत मचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमित्वं वि, उग्गहसि अजाइया ।।१३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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