Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 772
________________ ७०४ तीर्थंकर महावीर दशवैकालिकसूत्र ( हरिभद्र की टीका सहित ) अायावयाही च य सोगमल्ल कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिदाहि दोसं विणएञ्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥५॥ -अ० २, पत्र ६५-१ -आतापना ले, सौकुमार्य-भाव को छोड़, काम भोगों को अतिक्रमकर । दुःख निश्चय ही अतिक्रान्त हो जाता है। द्वष को छेदन कर, राग को दूर कर-इस प्रकार करने से तू संसार में सुखी हो जायेगा। (८८) अजयं भासमाणो अ, पाणभूयाइं हिंसइ । बंधइ पावयं कम्म, तं से होइ कडुअं फलं ॥६॥ -अ० ४, पत्र १५६-२ -अयत्नपूर्वक बोलता हुआ जीव, प्राणी और भूतों की हिंसा करता है और पाप-कर्म बाँधता है। उसका फल उसे कटु मिलता है। (८६) कहं चरे कहं चिट्ठ, कहमासे कहं सए । कह भुंजतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ ॥७॥ जयं चरे जयं चिट्ठ, जयमासे जयं सए। जयं भुजंतो भासतो, पावकम्मे न बंधइ ॥८॥ -दशवकालिक अ० ४ पत्र १५६-२ -हे भगवन् ! जीव किस प्रकार से चले ? किस प्रकार से खड़ा हो ? किस प्रकार बैठे ? किस प्रकार सोवे ? किस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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