Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 770
________________ ७०२ तीर्थंकर महावीर (50) अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहारण य सुहाण य । अप्पा मिश्रममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपट्टिश्रो ॥ ३७ ॥ -अ० २०, पृष्ठ ५७ - आत्मा ही दुःख और सुख का कर्ता और विकर्ता है । एवं यह आत्मा ही शत्रु और मित्र है, सुप्रस्थित मित्र और दुःप्रस्थित शत्रु है । (58) एगप्पा जिए सत्तू, कसाया इन्द्रियाणि य । ते जिखित्तु जहानायं विहरामि श्रहं मुणी ॥ ३८ ॥ > - श्र० २३, पृष्ठ ६७ - वशीभूत न किया हुआ आत्मा शत्रुरूप है - कषाय और इन्द्रियाँ भी शत्रुरूप हैं । उनको न्यायपूर्वक जीत कर मैं विचरता हूँ । ( ८२ ) उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई । भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ॥ ४१ ॥ - अ० ६५, पृष्ठ ७५ - भोग से कर्म पर आलेपन होता है, भोगी संसार का भ्रमण करता है । अभोगी पर आलेपन नहीं होता और अभोगी संसार पार कर जाता है । Jain Education International ( ८३ ) रोगो य दोसो विय कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाई मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई For Private & Personal Use Only मरणं वयंति ॥ ७ ॥ -अ० ३२, पृष्ठ ९६. www.jainelibrary.org

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