Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 769
________________ सूक्ति-माला ७०१ -तप अग्नि है, जीव अग्निस्थान है, तीनों योग स्रुव शरीर करोषांग है; कर्म ईंधन है, संयम शांति ( पाठ । है । इस प्रकार के होम से मैं अग्नि को प्रसन्न करता हूँ । ऋषियों ने इसकी प्रशंसा की है । ( ७७ ) जह सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले । न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मिसहरा भवंति ॥ २२ ॥ -अ० १३, पृष्ठ ३३ — जैसे सिंह मृग को पकड़ लेता है, वैसे ही मृत्यु मनुष्य को पकड़ती है । काल में माता, पिता, भ्राता आदि कोई भागीदार नहीं होते । ( ७८ ) अभयं पत्थिवा तुम्भं, अभयदाया भवाहि य । अणिच्चे जीव लोगम्मि, किं हिंसाए पसज्जसी ।। ११ ।। -- अ० १८, पृष्ठ ४५ - हे पार्थिव ! तुझे अभय है । तू भी अभय देने वाला हो । अनित्य जीवलोक में हिंसा में क्यों आसक्त हो रहा है । ( ७६ ) अप्पा नई बेयरणी, श्रप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दणं वर्णं ।। ३६ ।। अ० २०, पृष्ठ ५७ -आत्मा वैतरणी नदी है । मेरी आत्मा कूटशाल्मलि वृक्ष है । आत्म कामदुधा धेनु है । मेरी आत्मा नन्दनवन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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