Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 767
________________ सूक्ति-माला ६६६ -जो पुरुष किसी प्राणी का वध न करे वह समित (अर्थात् समिति वाला) कहलाता है फिर उससे पाप-कर्म उसी प्रकार चला जाता है, जिस प्रकार स्थल से पानी चला जाता है। कसिणंपि जो इमं लोयं, पडिपुण्णं दल्लेज्ज इक्कस्स । ताणावि से ण संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे पाया ॥ १६ ॥ -अ०८, पृष्ठ १८ -धन-धान्य से भरा हुआ लोक भी यदि कोई किसी को दे देवे, तो इससे भी लोभी जीव सन्तोष को प्राप्त नहीं होता, इसलिए यह आत्मा दुष्पूर है अर्थात् इसकी तृप्ति होना अत्यन्त कठिन है। (७१) जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्डई । दोमासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ॥ १७ ॥ --अ०८, पृष्ठ १८ -जहाँ लाभ होता है, वहाँ लोभ होता है । लाभ लोभ को परिवर्द्धित करता है। दो मासक का कार्य कोटि से भी निष्पन्न न हो सका। जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिए। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जो ॥ ३४ ॥ अ० ९, पृष्ठ २० -दुर्जय संग्राम में सहस्र-सहस्र शत्रुओं को जीतने की अपेक्षा अपनी आत्मा पर जय पाना सर्वोत्कृष्ट जप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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