Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 766
________________ ६६८ तीर्थकर महावीर उत्तराध्ययन ( वडेकर तथा एन् वी. वैद्य-सम्पादित) (६६ ) जहा सुणी पूइकन्नी, निक्कसिञ्जई सम्बसो । एवं दुस्सीलपडिणीए मुहरी निक्कसिञ्जई ॥ ४ ॥ -अध्ययन १, पृष्ठ १ -जैसे सड़े कानों वाली कुतिया निवास योग्य स्थान से निकाल दी जाती है, उसी प्रकार दुःशील, प्रत्यनीक, वाचाल निकाला जाता है। वरं मे अप्पा दन्तो, संजमेण तवेण य । माहं परेहिं दम्मतो, बंधणेहिं वहेहि य ॥ १६ ॥ --अ० १, पृष्ठ २ -संयम और तप के द्वारा स्वयं ही आत्मा का दमन करना मुझे वरेण्य है ( ताकि ) वध और बंधनों के द्वारा औरों से आत्म-दमन न हो। चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणुसत्तं, सुई, सद्धा, संजयमम्मि य वीरियं ॥ १ ॥ -अ०३, पृष्ठ ८ -इस संसार में जीव को चार प्रधान अंग दुर्लभ हैं१ मनुष्यत्व २, श्रुति-श्रवण ३ श्रद्धा और ४ संयम में वीर्य । पाणे य नाइवाएज्जा, से समीय त्ति वुच्चई ताई । तश्रो से पावयं कम्मं, निज्जाइ उदगं व थलामो ॥ ६ ॥ . -अ०८, पृष्ठ १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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