Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 764
________________ ६६६ तीर्थकर महावीर ९ पिंड, १० द्रव्यसार, ११ महेच्छा, १२ प्रतिबन्ध, १३ लोभात्मा, १४ महार्दि, १५ उपकरण, १६ संरक्षण, १७ भार, १८ सम्पातोत्पादक, १९ कलिकरण्ड, ·० प्रविस्तर, २१ अनर्थ, २२ संस्तव, २३ अगुप्ति, २४ आयास, २५ अवियोग, २६ अमुक्ति, २७ तृष्णा, २८ अनर्थक, २९ आसक्ति, ३० असंतोप । इस प्रकार परिग्रह के ये तीस नाम अन्वर्थक-सार्थक हैं। औपपातिक सूत्र (६१) जह जीवा बज्झति, मुच्चति जह य परिकिलिस्संति । जह दुक्खाण अंतं, करेंति केई अपडिबद्धा ॥ __ --पृष्ठ ५५ -जैसे कई जीव कर्मों से बंधते हैं, वैसे ही मुक्त भी होते हैं । और, जैसे कर्मों की वृद्धि होने से महान् कष्ट पाते हैं। वैसे ही दुःखों का अंत भी कर डालते हैं । ऐसा अप्रतिबद्ध विहारी निगंथों ने कहा है। (६२) अट्टाहहिय चित्ता जह, जीवा दुक्खसागर नुवति । जह बेरग्ग वगया, कम्मतमुग विहाडे ति ॥ -पृष्ठ ५५ -जो जीव वैराग्यभाव से रहित हैं, वे आर्तरौद्र ध्यान से विकल्प चित्त हो जैसे दुःख सागर को प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैराग्य को प्राप्त हुए जीव कर्म-समूह नष्ट कर डालते हैं। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org


Page Navigation
1 ... 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782