Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 768
________________ ७०० तीर्थंकर महावीर ( ७३ ) अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्यो । अप्पाणामेवमप्पा, जइत्ता सुहइ ॥ ३५ ॥ -- - अ० ६, पृष्ठ २० से । - हे शिष्य ! तू आत्मा से ही युद्ध कर तुझे क्या काम ? आत्मा को आत्मा से ही जीत प्राप्त करता है । ( ७४ ) सल्लकामा विसं कामा, कामा श्रासीविसोवमा | कामे य पत्येमाणा, अकामा जंति दोग्गई ॥ ५३ ॥ --अ० ९, पृष्ठ २२ - काम शल्य है, काम विष है, काम आशीविष है । भोगों की प्रार्थना करते-करते जीव विचारे उनको प्राप्त किये बिना ही दुर्गति में चले जाते हैं । बाहर के युद्ध करके जीव सुख ( ७३ ) कुसग्गे जह ओस बिंदुए, थोवंचिट्टइ लंबमाणए । एवं भणुयाण जीवियं, समयं गोयम मा पमायए || २ | Jain Education International अ० १०, पृष्ठ २३ -जैसे कुशा के अग्रभाग का ओस का बिन्दु अपनी शोभा को धारण किये हुए थोड़े काल पर्यन्त ठहरता है, इसी प्रकार मनुष्य-जीवन है । अतः हे गौतम! समय मात्र के लिये प्रमाद मत कर । ( ७६ ) तवो जोई जीवो जोइ ठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेह संजमजोगसन्ती, होमं हुणामि इ सिणं पसस्थं ॥ ४४ ॥ -अ० १२, पृष्ठ ३१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782