Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 771
________________ सूक्ति-माला ७०३ -रागद्वेष दोनों कर्म के बीज हैं। मोह कर्म से उत्पन्न होता है। कर्म जन्म और मरण का मूल है। जन्म और मृत्यु दुःख के हेतु कहे गये हैं। (८४) दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हो जस्स न होइ तण्हा । तएहा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हो जस्स न किंचणाई ॥ ८ ॥ -अ०३२, पृष्ठ ९६ -जिसे मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर दिया, जिसको तृष्णा नहीं, उसने मोह का अंत कर दिया, जिसने लोभ का परित्याग किया उसने तृष्णा का क्षय कर डाला और जो अकिंचन है, उसने लोभ का विनाश कर डाला। (८५) अञ्चणं रयणं चेव, वन्दणं पूअणं तहा । इड्ढीसक्कार सन्माणं, मणसाऽवि न पत्थए ।। १८ ॥ ---अ० ३५, पृष्ठ ११० --अर्चा, रत्न, वन्दन, पूजन, ऋद्धि, सत्कार, सम्मान इन सबकी मुमुक्षु मन से भी इच्छा न करे। (८६ ) कंदप्पभाभियोगं च, किबिसियं मोहमासुरत्तं च । एयाड दुग्गई ओ, मरणम्मि विराहिया होति ॥ २५५ ।। -अ०३६, पृष्ठ १२८ --कंदर्प-भावना, अभियोग-भावना, किल्विष-भावना, मोहभावना, और आसुरत्व-भावना, ये भावनाएँ दुर्गति की हेतुभूत होने से दुर्गति-रूप कही जाती हैं। मरण के समय इन भावनाओं से जीव विराधक हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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