Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 758
________________ ६६० तीर्थङ्कर महावीर प्राप्त होते हैं ( वैसे श्रोत्रेन्द्रिय के आश्रयी भी बध-बंधन प्राप्त करते हैं।) (१२) चक्खिदियदुदंत-त्तणस्स अह एत्तिो भवति दोसो। जं जलणम्मि जलते, पडसि पयंगो अबुद्धिो ॥ -पृष्ठ २०६ -चक्षुरिन्द्रिय के दुर्दुरान्तपने से पुरुष में इतना दोष होता है कि, जैसे मूर्ख पतंग जलते अग्नि में कूद पड़ते हैं ( वैसे ही वे दुःख प्राप्त करते हैं)। घाणिदिय दुईतत्तणस्स अह एत्तिो हवह दोसो । जं अोसहि गंधेण बिलाश्रो निद्धावई उरगो ॥६॥ -पृष्ठ २०६ -जो मनुष्य घ्राणेन्द्रिय के आधीन ( अनेक प्रकार के सुगंध में आसक्त) होते हैं, वे उसी प्रकार बंधित होते हैं) जैसे ओषधि के गंध के कारण बिल से निकलने पर सर्प पकड़ लिया जाता है। जिभिदि य दुइंतत्तणस्स अह एत्तिो हवइ दोसो। जं गललग्गुक्खित्तो फुरइ थल विरेल्लिो मच्छो ॥७॥ __ -पृष्ठ २०६ -जो जिह्वेन्द्रिय के वश में होता है, वह गले में काँटा लगा कर पृथ्वी पर पटकी हुई मछली की तरह तड़पता है (और मरण पाता है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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