Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 757
________________ सूक्ति-माला ६८६ श्रमण-ब्राह्मण को अप्रासुक, अनेषणीय खान, पान, खादिम तथा स्वादिम पदार्थो का प्रतिलाभ करा कर । ज्ञाताधर्मकथा ( एन० वी० वैद्य-सम्पादत) देवाणुप्पिया ! गंतव्वं चिट्ठितब्बं णिसीयव्वं तुयट्टियव्वं भुंजियवं भासियवं, एवं उठाए उट्ठाय पाणेहिं भूतेहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमितव्वं अस्सिं च णं अट्ठ णो पमादेयव्वं । —पृष्ठ १०३ -हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार पृथ्वी पर युग ( शरीर-प्रमाण मात्र) मात्र दृष्टि रखकर चलना, शुद्ध भूमि पर खड़े रहना, भूमि का प्रमार्जन करके बैठना, सामायिक आदि का उच्चारण करके शरीर की प्रमार्जना करके संस्तारक और उत्तरपट्ट पर अपनी भुजा को सिर के नीचे लगा कर बायीं ओर शयन करना, वेदनादि के कारण अंगारादिक दोष-रहित भोजन करना, हित, मित और मधुर वचन बोलना। इस प्रकार उठ-उठ करके प्रमाद और निद्रा को दूर कर बोध प्राप्त करके प्राण, भूत, जीव और सत्य-सम्बन्धी संयम के लिए सम्यक् प्रकार से यत्न करना । इसमें और प्राणादिक की रक्षा करने में किंचित् मात्र प्रमाद मत करना। (११) सोइंदिय दुहृत-त्तणस्स अह एत्तिश्रो हवति दोसो । दीविगरुयमसहतो, वहबंधं तित्तिरो पत्तो। -पृष्ठ २०६. -श्रोत्रेन्द्रिय के दुर्दातपने के कारण इतना दोष होता है कि जैसे पराधीन पिंजरे में पड़े तीतर के शब्द को न सहन कर पाने के कारण, वन में रहने वाले तीतर पक्षी बध और बंधन को ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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