Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 745
________________ सूक्ति-माला ६७७ नत्थि ममाइयं, तं परिन्नाय मेहावी विइत्ता लोग, वंता लोगसन्नं से मइमं परिक्कम्मिज्जासि त्ति वेमि ! -पत्र १२९-१ -जो ममत्त्व बुद्धि का त्याग करता है, वह ममत्व का त्याग करता है। जिसको ममत्त्व नहीं है, वही मोक्ष के मार्ग का जानकार मुनि है। ऐसा जाननेवाला चतुर मुनि लोक-स्वरूप को जानकर लोक-संज्ञाओं को दूर कर विवेकवंत होकर विचरता है। से मेहावी जे अणुग्वायणस्स खेयन्ने, जे य बन्धपमोक्ख मन्नेसिं --पत्र १३२-२ -जो अहिंसा में कुशल है, और जो बंध से मुक्ति प्राप्त करने के प्रयास में है, वह ही सच्चा बुद्धिमान है। अणेग चित्ते खलु अयं पुरिसे : से केयण अरिहइ पूरइत्तए -पत्र १४७-२ -जगत के लोक की कामना का पार नहीं है। यह तो चंलनी में पानी भरने के समान है। पुरिसा ! तुममेव तुमं-मित्तं, कि बहिया मित्तमिच्छसी ? पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिनिगिज्झ एवं दुक्खा पमोक्खसि । --पत्र १५२-१ -हे पुरुष ! तू ही तेरा मित्र है। बाहर क्यों मित्र की खोज करता है ? हे पुरुष अपनी आत्मा को ही वश में कर । ऐसा करने से तू सर्व दुःखों से मुक्त होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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