Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai
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तीर्थंकर महावीर
(१०) प्रासं च छंदं च विगिंच धीरे । तुमं चेव तं सल्लमाह१ ।
-पत्र ११४-२ --हे धीर पुरुषो ! तुम्हें विषय की आशा और लालच से दूर रहना चाहिए। तुम स्वयं अपने अंतःकरण में इस काँटे को स्थान देकर अपने ही हाथों दुःखी बन रहे हो।
जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो, अंतो अंतो पूतिदेह तराणि पासति पुढोविसवंति पंडिए पडिलेहए।
--पत्र १२४-१ -जिस प्रकार शरीर बाहर असार है, उसी प्रकार अंदर से असार है। और जिस प्रकार अंदर से असार है, उसी प्रकार बाहर से असार है । बुद्धिमान इस शरीर में रहे हुए दुर्गन्धियुक्त पदार्थों को और शरीर के अन्दर की अवस्थाओं को देखता है कि इनमें से मलादिक निकलते रहते हैं। यह देखकर पंडित पुरुष इसके सच्चे स्वरूप को समझकर इस शरीर का मोह न रखे ।
(१२) से तं संबुज्झमाणे अायाणीयं समुट्ठाय तम्हा पावकम्म नेव कुज्जा न करावेज्जा।
-पत्र १२७-१ --पूर्वोक्त वस्तु-स्वरूप को समझकर साधक का यह कर्तव्य है कि न स्वयं पापकर्म करे न कराये।
(१३) जे मयाइयमई जहाइ से चयइ ममाइय, से हु दिट्टपहे मुखी जस्स
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