Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 740
________________ ६७२ तीर्थङ्कर महावीर दुःख सागर में डूबते हैं और वैराग्य से कर्मराशि नष्ट करते हैं, बताया ॥५॥ जिस प्रकार राग कृत कर्म पाप फल विपाक प्राप्त करते हैं, ( उसे कह कर भगवान् ने) जिस प्रकार परिहीन कर्म वाले सिद्ध. सिद्धालय पहुँचते हैं ( कहा )॥६॥ भगवान् ने धर्म दो प्रकार के बताये-१ अगारधर्म ( गृहस्थधर्म ) और २ अणगार धर्म ( साधु-धर्म)। अणगार-धर्म वही पालन करते हैं, जो सब प्रकार से मुंडित हो जाते हैं। प्रव्रजित अणगार सर्व रूप से, प्राणातिपात विरमण, मृषावाद विरमण, अदत्तादान विरमण, मैथुन विरमण, परिग्रह विरमण, रात्रि भोजन विरमण ( स्वीकार करता है)। हे आयुष्मन् ! अनगारसामायिक धर्म कहता हूँ--इस धर्म अथवा शिक्षा में उपस्थित निगथ अथवा निगथी आज्ञा का आराधक होता है। आगार धर्म १२ प्रकार का कहा-५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत । पाँच अणुव्रत ये हैं-१ स्थूल प्राणातिपात विरमण, २ स्थूल मृषावाद विरमण, ३ स्थूल अदत्तादान विरमण, ४ स्वदार संतोष और ५ इच्छा परिमाण तीन गुणव्रत हैं-१ अनर्थदंड विरमण, २ दिग्व्रत विरमण, ३ उपभोग परिभोग-परिमाण । चार शिक्षाव्रत है-१ सामायिक, २ देशावकाशिक, ३ पौषधोपवास, ४ अतिथिसंविभाग । अपश्चिम मरणांतिक संलेखना, जूसणा ( सेवा ) आराधना (भगवान् ने बताये )। आयुष्मनों ! आगार सामायिक धर्म कहता हूँ । आगार शिक्षा में उपस्थित ( जो) श्रमणोपासकश्रमण्येपासिका विचरण करता है वह आराधक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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