Book Title: Tirthankar Mahavira Part 2
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 738
________________ “६७० तीर्थङ्कर महावीर है। १३ असत्य दोषारोपण है। १४ पेसुण्ण ( पीठ पीछे दोष प्रकट करना) है। १५ परपरिवाद (दूसरे की निन्दा करना) है। १६ अरति रति है। १७ माया मृपावाद है और १८ मिथ्या दर्शन शल्य है । प्राणातिपात विरमण ( अहिंसा) है । मृषावाद विरमण है । अदत्तादान विरमण है। मैथुन विरमण है । परिग्रह विरमण है यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक सब ( अस्ति-भाव ) है । व्रत है । सब में नास्ति भाव है । व्रत नहीं है। सत्कर्म अच्छे फल वाले होते हैं । दुष्कर्म बुरे फल वाले होते हैं। पुण्य-पाप का स्पर्श करता है ( जीव अपने कर्मों से )। जीव अनुभव करता है । कल्याण और पाप सफल हैं। धर्म का उपदेश किया-यह निथथ-प्रवचन ही सत्य है। यह अनुत्तर ( इससे उत्कृष्ट कोई नहीं) है (क्योंकि ) केवलज्ञानी द्वारा प्रणीत है। यह सम्यक रूप से शुद्ध है। यह परिपूर्ण है। यह न्याय से बाधा रहित है। यह शल्य का कर्तन करने वाला है। सिद्धि, मुक्ति, निर्वाण तथा बाहर निकलने का यह मार्ग है। अवितथ तथा बिना बाधा के पूर्व और अपर में घटित होने वाला है। सर्व दुःखों का जिसमें "अभाव हो, उसका यह मार्ग है । इसमें स्थित जीव सिद्ध होते हैं । बुद्ध होते हैं, मोचन करते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं और समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । (इस निगथ-प्रवचन पर विश्वास करने वाले) भक्त पुनः एक बार मनुष्य शरीर धारण करते हैं । पूर्व कर्म के शेष रहने से, अन्यतर देवलोक में देवता-रूप में उत्पन्न होते हैं । महान् सम्पत्ति वाले, यावत् महासुख वाले दूर गये हुए चिरकाल तक स्थित होते हैं । वे तब वहाँ देव होते हैं-महर्द्धिक वाले यावत् चिरकाल तक स्थित रहने वाले। इनका वक्षस्थल हार से सुशोभित रहता है यावत् प्रकाशमान होते हैं । कल्पोपग, कल्याणकारी गति वाले, आगमिष्यद्भद्र, या वत् असाधारण रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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