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भक्त राजे
शुभमह को राजेन्द्राभिधान में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है । स्तूपस्य विशिष्टे काले पूजायां'
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि, स्तूपों में मूर्तियाँ होती थीं और उनकी पूजा होती थी ।
मेरी यह स्थापना शास्त्रों के अतिरिक्त अब पुरातत्त्व से भी सिद्ध है । यह दुर्भाग्य की बात है कि, जैनों से संम्बद्धित खुदाई का काम भारत में नहीं के बराबर हुआ । पर; कंकाली-टीला ( मथुरा ) का जो एक ज्वलंत प्रमाण जैन - स्तूप सम्बन्धी प्राप्त है, उसमें कितनी ही जैन-मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
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धर्म के प्रति वैशाली वासियों की अटूट श्रद्धा थी । महापरिनिव्वानमुत्त में बुद्ध ने वैशाली वालों के ७ गुण गिनाये हैं, उनमें धर्म के प्रति उनकी निष्ठा भी एक है । उसमें पाठ है : -
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"वजी यानि तानि वज्जीनं वज्जि वेतियानि अब्भन्तरानि वेव बाहिरानि च तानि सक्करोन्ति गुरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, तेसं च दिन्नं पुब्बं कतपुष्यं धम्मिकं बलिं नो परिहापेन्ती"" ।
क्या सुना है – वज्जियों के ( नगर के ) भीतर या बाहर जो चैत्य हैं, वह उनका सत्कार करते हैं, पूजते हैं। उनके लिए पहिले किए गये दान को पहिले की गयी धर्मानुसार बलि को लोप नहीं करते ।
१ - - राजेन्द्राभिधान, भाग ४, पृष्ठ २४१५ ।
२ -- विशेष विवरण के लिए देखिए 'जैन स्तूप ऐंड अदर एंटीक्विटीज आव मथुरा,' विंसेंट ए० स्मिथ- लिखित ( श्रावर्यालाजिकल सर्वे आव इंडिया न्यू इम्पीरियल सिरीज, वाल्यूम २० ) । अहिछत्रा में भी जैन स्तूप मिला है और उसमें भी जैन-मूर्तियाँ मिली हैं।
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३ - दीघनिकाय [ पालि ], महावग्गो, पृष्ठ ६० ।
४- दीर्घनिकाय हिन्दी अनुवाद पृष्ठ ११६ ।
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