Book Title: Tirthankar Mahavira Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra View full book textPage 7
________________ प्राक्कथन तीर्थकर श्रमण भगवान महावीर एक व्यक्ति नहीं, विश्वात्मा हैं, विश्वपुरुष हैं । व्यक्ति क्षुद्र है, वह देश और काल की सीमामों में अवच्छिन्न है अतः वह अनन्त नहीं हो सकता । महावीर अनन्त हैं, उनका प्रकाश शाश्वत है। वह काल की सीमाओं को धकेलता हा अनन्त की ओर सतत गतिशील रहेगा। भगवान महावीर का प्रबोध उभयमुखी है। वह जहां एक ओर अन्तर्जगत् की सुप्त चेतना को प्रबुद्ध करता है, वहां दूसरी ओर समाज की मोह निद्रा को भी भंग करता है । महावीर ने साधक की अन्तरात्मा को जागृत करने के लिए वह आध्यात्मिक चिन्तन दिया है, जिसकी ज्योति कभी धूमिल नहीं होगी। यह वह ज्योति है, बो जाति, कुल, पंथ और देश आदि के किसी भी वर्ग विशेष में माबद्ध नहीं है। चिन्तन के वह संकरे गलियारों में न घूमकर सीधे आत्मतत्त्व को स्पर्श करती है। यह महावीर का ही मुक्त उद्घोष है कि हर मात्मा मूलतः परमात्मा है। क्ष द्र-से-अद्र प्राणी में भी अनन्त चैतन्य ज्योति विद्यमान है। अपेक्षा है ऊपर के अज्ञान मोह, राग-द्वेष आदि कर्मावरणों को तोड़ देने की। इसप्रकार महावीर का ईश्वरत्व प्राणिमात्र का है, किसी एक व्यक्ति विशेष का नहीं । महावीर का प्रबोध केवल धर्म परम्पराओं के आध्यात्मिक तत्त्व बोध तक ही परिसीमित नहीं है । उनका दर्शन जीवन के विभाजन का दर्शन नहीं है। वह एक अखण्ड एवं अविभक्त जीवन दर्शन है। अतः उनका प्रबोध आध्यात्मिक, धर्मक्रान्ति के साथ सामाजिक क्रान्ति को भी तथ्य की गहराई तक छता है। भगवान महावीर का सामाजिक क्रान्ति का उद्घोष चिर अतीत से बन्धनों में जकड़ी मातृ जाति को मुक्ति दिलाता है, उसके लिए कब के अवरुद्ध विकास पथ को खोल देता है । उस युग की दास प्रथा कितनी भयंकर थी ? दासों के साथ पशु से भी निम्नस्तर का व्यवहार किया जाता था । मानवता के नाम पर उन का धार्मिक, नैतिक या सामा. जिक कोई भी तो मूल्य नहीं था। महावीर का क्रान्ति स्वर दास-प्रथा के विरोध में भी मुखरित होता है। वे अनेक बार सामाजिक परम्पराओं के विरोध में जाकर पद-दलित एवं प्रताड़ित दासियों के हाथ का भोजन भी लेते हैं । जाति और कुल मादि के जन्मना श्रेष्ठत्व के दावे को भी उन्होंने चुनौती दी । जन्म की अपेक्षा कर्म की श्रेष्ठता को ही उन्होंने सर्वोपरि स्थान दिया हैं। उनके संघ में हरिकेश जैसे अनेक चाण्डाल आदि निम्न जाति के शिष्य थे, जिनके सम्बन्ध में उनका कहना था कि जाति की कोई विशेषता नहीं है, विशेषता है सद्गुणों की, जिसके फलस्वस्त देवता भी चरणों में नतमस्तक हो जाते हैं। महावीर ने लोक और परलोक के सम्बन्ध में फैले हुए अनेक अन्धविश्वासों को तोड़ा और उनके नीचे दबे यथार्थता के सत्य को उजागर किया। हम देखते हैं, कि भगवान महावीर ने वर्ग-विहीन तथा शोषण मुक्त समाज की स्थापना के रूप में जो यथाप्रसंग पारिवारिक, आर्थिक एवंPage Navigation
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