Book Title: Terapanth ka Rajasthani ko Avadan
Author(s): Devnarayan Sharma, Others
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 11
________________ (vlit) काव्य-विरचना, गद्य-लेखन, गीत-निर्माण एवं नैसर्गिक-स्वरशास्त्र में पारंगत हैं। विस्तार-भय के कारण यहाँ सबका परिचय नहीं दिया जा सका है। इस विशाल साहित्य की रसात्मकता के सरोवर में संसार स्नात हो सके, इसकी सुगंधि से चतुर्दिक वातावरण सुरभित हो सके, साहित्याचार्यों एवं रसिकों का जीवित हृदय परितोष को प्राप्त कर सके इसी श्रेष्ठ भावना से भावित होकर अनुशास्ता आचार्यश्री तुलसी, श्री युवाचार्य महाप्रज्ञ एवं साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभाजी के निर्देशन में प्राकृत भाषा एवं साहित्य विभाग जैन विश्व भारती संस्थान, मान्य विश्वविद्यालय की ओर से दिनांक १८ से २० अक्टूबर १९९२ तक एक त्रिदिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन किया गया, जिसमें भारत के लगभग २५ ख्यातिलब्ध विद्वानों ने अपना महार्य योगदान दिया। सभी ने अपना-अपना शोध-निबन्ध प्रस्तुत किया। समीक्षा एवं शोध की दृष्टि में सभी निबन्ध उच्चकोटि के हैं। सीमित पृष्ठों को ही पुस्तकाकार देने से परिसंवाद में पठित कुछ शोध-निबन्धों को हम प्रकाशित नहीं कर रहे हैं। वे सभी विद्वान् धन्यवादाह हैं जिन्होंने अपना बहुमूल्य समय निकालकर इस विद्या-यज्ञ की पूर्णता में सहायता की। इस राष्ट्रीय परिसंवाद के परिप्रेक्ष्य में भारत के दो विशिष्ट विद्वानों-- डॉ० देवकोठारी, उदयपुर एवं डॉ. किरण नाहटा, बीकानेर को नहीं भुलाया जा सकता है जिनके सफल निदेशकत्व में यह कार्य सफल हुआ। माता-पिता अपनी सन्तान के प्रति उदार होते हैं, अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति सन्तान के लिए समर्पित कर देते हैं। यहाँ भी ऐसा ही देखा गया। मातृ-संस्था जैन विश्वभारती ने सम्पूर्ण वित्तीय सहायता दी। माननीय अध्यक्ष महोदय श्री श्रीचन्दजी बैंगानी एवं आदरेण्य मन्त्री श्री झूमरमलजी बैंगानी ने इस यज्ञ में अपनी सहज उदारता का परिचय दिया। हम किसी कार्य के लिए जब भी गए, बिना 'ननुनच' किए ही इन लोगों ने आगे आकर कार्य पूर्ण किया। हम हृदय से इनके आभारी हैं। मातृ-संस्था के अन्य अधिकारी श्री समदड़िया जी, श्री बांठिया जी आदि ने काफी सहयोग दिया । हम उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं । इस प्रसंग में दो वैसे महापुरुष याद आ रहे हैं जो धरती के भगवान हैं। हम अल्पज्ञ, बुद्धिहीन और अगुणी तथा वे महासत्त्व गुण समुद्र एवं रत्नत्रय के उत्स हैं। उनके बारे में कुछ कहने के लिए हमारे शब्दों ने अपनी असमर्थता प्रकट कर दी है। फिर भी उन्हीं की भक्तिवशात् उन्हीं से शक्ति प्राप्त कर हम अबोध उनके प्रति प्रणामाञ्जलि समर्पित करते हैं। वे महापुरुष हैं, अनादिकाल से अनवच्छिन्न रूप में प्रवाहित . द्विपुटी परम्परा के दो तत्त्वगुरु और शिष्य । कैसा दुर्लभ संयोग ? समर्थ गुरु आचार्यश्री तुलसी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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