Book Title: Terapanth Mat Samiksha
Author(s): Vidyavijay
Publisher: Abhaychand Bhagwan Gandhi

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Page 10
________________ तेरापंथ-मत समीक्षा। W ww __ चातुर्मास उतरनेके बाद भीखुनजी, अपने गुरु रुघनाथजीके पास सोजत आए। रुघनाथजी पहिलेसे जान गए थे कि-इसने ऐसी प्ररूपणाकी है। इस लिये उसका कुछ सत्कार नहीं किया । आहार भी साथमें नहीं किया । तब भीखुनजीने अपने गुरूसे कहा:-मेरा क्या अपराध है ? रुघनाथजीने कहा:तुमने उत्सूत्रप्ररूपणाकी, रुघनाथनीने उसको समझाया कि:-'यह तुम्हारी कल्पना, बिलकुल शास्त्र और व्यवहार दोनोंसे विरुद्ध है । यदि ऐसा ही हो तो धर्मके मूल अंगभूत दया और दान दोनों खंडित क्या ? सर्वथा उठही जायेंगे । और जब ये दोनों उठ गए तो फिर मोक्ष मार्गका अभाव ही हो जायगा। अन्तमें क्रमशः सर्वथा नास्तिकताकी नोबत आ जायगी। अत एव तुमने जो अरिहंतोंके अभिप्रायसे विरुद्ध प्ररूपणाकी है, उसका प्रायश्रित लेलो और आयंदे ऐसा न हो, ऐसा निश्चय करो। ५० भीखुनजीके अन्तःकरणमें इस बातकी जरा भी असर . न पहूँची, परन्तु इसने अपने मनमें विचार कियाः- यदि इस समय मैं अपने मानसिक विचार प्रकट कर दूँगा तो ये गुरुजी मुझे समुदायसे बाहर निकाल देंगे। और अभी मैं बाहर हो करके अपना टोला नहीं जमा सकता हूँ। क्योंकि-अभी मेरे पास वैसे सहायक नहीं हैं, जैसे चाहिये । अत एव अभी तो गुरुजी जो कुछ कहें, स्वीकार ही कर लेना उचित है'। ऐसा विचार करके दंभ प्रिय जिखुनजीने कहा- हे स्वामिन् ! मेरी भूल आपने कही इससे मैं क्षमापात्र हूँ। आप जो कुछ प्रायश्चित्त दें, मैं लेनेके लिये तय्यार हूँ' । गुरुने छमासीप्रायश्चित्त दिया (किसी र जगह दो दफे प्रायश्चित्त लेना लिखा है) यह सब

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