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तेरापंथ-मत समीक्षा।
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दृष्टिगोचर होगी, तब हमें विशेष स्पष्टिकरण करनेकी आवश्यकता नहीं रहेगी। एक दूसरी बात लीजिए । प्रश्न पूछनेवाले महानुभावोंसे हम यह पूछते हैं कि तुम्हारा कोई साधु, पघडी तथा धोती पहन करके पाटपर बैठ जाय, तो उसको आप साधु कहेंगे या नहीं ? क्योंकि प्रतिमा अर्थात् मूर्तिपर जिसका ख्याल नहीं है, उसके लिये तो पघडी पहना हुआ हो, या खुले सिर हो, दोनों एक समान हैं। नाममें तो फर्क हुआ ही नहीं है । परन्तु नहीं, यही कहना पडेगा कि-वह साधु नहीं है। क्योंकि उसमें साधुका वेष नहीं है-साधुकी आकृति नहीं हैसाधुकी मूर्ति नहीं है । कहिये, मूर्तिमानना सिद्ध हुआ कि नहीं ? । सज्जनो! निर्विवाद सिद्ध ' स्थापना निक्षेप' का निषेध करके क्यों भवभ्रमण करते हो?। प्रतिमाको उपचरित नयसे साक्षात् जिनवर मान करके कई भक्तजनोंने सेवा-पूजा की है। वह बात चौदवें प्रश्नके उत्तरमें विशेष रूपसे लिखि जायगी। अतएव यहांपर लिखना उचित नहीं समझते ।
महानुभाव ! प्रतिमापर द्वेष होनेसे उलटे प्रश्न करते हो परन्तु वेही प्रश्न जिनवाणी परभी घट सकते हैं। प्रभुजीकी वाणीमें जो पेंतीस गुण थे, वे पेंतीस गुण स्याहीसे कागजपर लिखी हुइ वाणीमें नहीं हैं। तथापि स्थापना रूप वाणीको जिनवाणी मान रहे हो तथा अपने बंधुओंको 'चलो जिनवाणी सुननेको ऐसा कहकर लेजाते हो । भला, कागज और स्याही जिसमें शेष रही हुई है, उसको जिनवाणी माननेमें तुम्हें जरासाभी संकोच नहीं होता है, और जिनप्रतिमाको जिनवर मान- । नेमें पेटमें दर्द होता है, यह कितनी आश्चर्य की बात है ?