Book Title: Terapanth Mat Samiksha
Author(s): Vidyavijay
Publisher: Abhaychand Bhagwan Gandhi

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Page 65
________________ तेरापंथ-मत समीक्षा। परूवेमो, एवं पएणवेमो, सव्वे पाणा, सव्वे भूआ, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अजावेतवा, न परिघेतअव्वा, न परियावेअव्वा, न उद्दवेअव्वा, एत्यवि जाणह नत्थित्य दोसो आयरियवयणमेअं." ___ ऊपर जो दोनों पाठ दिये गये हैं, इनमें पहिले पाठमें जैनेतरोंका वचन है, दूसरे पाठमें जैनमुनियोंका वचन है, पहिले पाठमें यदि धर्मका अध्याहार ( ऊपरसे धर्म) लिया भी जाय, तो भी वह पाखंडियोंका ही धर्म लेना। परन्तु समकितवंत जीवोंका नहीं । दूसरे पाठमें धर्म लेनेकी आवश्यकता ही नहीं है। इसके सिवाय इसी सूत्रके प्रथम श्रुतस्कंधके २२४ वें पृष्ठमें जो आस्रव वह परिस्रव ' तथा ' जो परिश्रव वह आस्रव' कहा है। परिश्रवकर्म निर्जराका नाम है। सपकितवंतका आस्रव, निर्जरारूप होता है । अज्ञानीका संवर वह आस्रवरूप होता है । तथा 'जो अनीस्रव वे अपरिस्रव ' और ' जो अपरिस्रव वे अनासव' कहे हैं । अनास्रव व्रतादि अशुभ अध्यवसायके कारणसे होते हैं । अपरिस्रव पापके कारणभूत होते हैं । निर्जराके कारण नहीं होते । जो अपरिस्रव याने पापके कारण हैं, वे अनास्रव याने पापके कारण हैं, वे अनास्रव याने निर्जराभूत होते हैं वरिपरमात्माके शासनके लिये तथा संघके लिये अनेक शुभ हेतुसे होते हुए पाप भी निर्जराके कारण होते हैं। देखिये आचारांगसूत्रके पृष्ठ २२४ में इस तरह पाठ है: जे आसवा ते परिस्सवा, ते परिस्सवा ते आसवा, जे अणासवा ते अपरिस्सवा जे अपरिस्सवा ते अणासवा ।"

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