Book Title: Terapanth Mat Samiksha
Author(s): Vidyavijay
Publisher: Abhaychand Bhagwan Gandhi

View full book text
Previous | Next

Page 81
________________ वेरापये मत समीक्षा - जिससे परंपरासे मुक्ति हो, ऐसे विनय-विवेक-ज्ञान दर्शन-चारित्र इत्यादि भी प्रमाण ही है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र इन तीनोंके संयोगमें साक्षात् मुक्ति होती है। दर्शनको निर्मलता भगवान्की आज्ञामें है । भगवान्ने प्रतिदिन प्रभुपतिमाके दर्शन नहीं करनेवाले साधु तया श्रावकोंको प्रायश्चित दिखलाया है । देखिये, नंदिसूत्रमें जिस महाकल्पसूत्रका नाम है, उसी महाकल्पसूत्रमें इस तरहका पाठ हैं:___ "से भयवं तहारूवं समणं वा माहणं वा चे. अघरे गच्छेजा ? हंतागोयमा ! दिणे दिणे गच्छेजा। से भयवं जत्य दिणेणगच्छेजा, तओ किं पायच्छित्तं हवेज्जा ? गोयमा ! पमायं पडुच्च तहारूवं समणं वा माइणं वा जो जिणधरं न गच्छेजा तओ छठं अहवा दुवालसमं पायच्छित्तं हवेजा।" अर्थात्-हे भगवन् ! किसी जीवको दुःखित नहीं करनेवाला तथारूप श्रमण जिनमंदिरमें जाय ? । हे गौतम ! हमेशा-प्रतिदिन जाय । हे भगवन् ! यदी वह हमेशां न जाय तो इससे, उसको प्रायश्चित्त लगे ? हे गौतम ? यदि प्रमादका अवलंबन करके तथारूप श्रमण जिनमंदिरमें प्रतिदिन न जाय तो, उसको छ? ( दो उपवास ) अथवा द्वादश ( पांच उपवास ) का प्रायश्चित्त लगे। पाठक देख सकते हैं कि-उपर्युक्त पाठमें खुद भगवान्ने जिनप्रतिमाके प्रतिदिन दर्शन करने का कैसा हुकम फरमाया

Loading...

Page Navigation
1 ... 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98